Sunday 22 December 2013

अबाबील की याद में


ये नन्ही आकाश में घंटो उड़ने वाली चिडिया पुराने भवनों की बाशिंदा है,जब छतीसगढ़ राज्य बना तो नार्मल स्कूल के विशाल भवन का चयन हाईकोर्ट के लिए हुआ.यहाँ अबाबीलों का बसेरा था,सफाई कर्मियों ने नवजात बच्चो सहित घोंसले उजाड़ कर नीचे मरने के लिए फेंक दिए.मैं कभी विवि के लाइब्रेरी से किताबे लेने यहाँ जाता था तो जो अबाबील खिड़की से बच्चो के लिए चारा लाती थी, उनके बच्चे को नीचे दम तोड़ते देखा..!मैं तब दैनिक भास्कर में सम्पादक था..फोटो और खबर प्रकाशन के अलावा क्या कर सकता था..तेरह साल हो गया है इस बात को..फिर ये चिड़िया कम होती दिखी और अब आलम ये है की दिखे तो सुकून मिलाता है की चलो कुछ तो कहीं बची है..!

सही मायने पुराने भवनों में बसेरा बनाने वाली अबाबील की ये प्रजाति खतरे में है आज के वास्तुशिल्प में उनके आने की जगह ऐसी के योग्य बने कमरों में रहती नही और न ही उनको पसंद किया जाता कभी यूरोपियन वास्तु शिल्प से बने मकानों में ये छोटी चिड़िया दिन में उड़ाते दिखती,मस्जिद में भी दिखाई देती संध्या ये आकाश में ऊँचे उड़ती और उनकी आवाज सुनाई देती-बिलासपुर रायपुर सड़क मार्ग पर टेलीफोन की तारों पर दूर तक बैठी दिखती ..पर अब नही..!

हाँ वसंत में प्रवासी अबाबील तेज नीची उड़न भरते हुए जो कीड़े हमारी आँखों से दिखी नहीं देते उन्हें जेट की गति से हमला कर खेतों में खाती उड़न भरती दिखती है ..पर मेरी प्यारी उड़ान भरने वाली सारे साल पुराने मकानों में रहने वाली अबाबील कम हो गई हैं..!!इन प्रवासी अबाबीलों में मैंने ठंड के दिनों पाकिस्तान में देखा यहाँ वो दो माह बाद पहुची ..इनकी संख्या भी साल दर साल कम हो चली हैं ..[फोटो नेट से]



Thursday 5 December 2013

बाघ के अलावा बहुत है जंगल में..





कान्हा-बांधवगढ़ या अचानकमार टायगर रिजर्व जब आम सैलानी वन्यजीवों को देखने जाता है, तब एक ही उद्देश्य होता है की, बाघ दिख जाए, बाघ दिखा तो उसका पैसा वसूल और किसी कारण नहीं दिखा तो उसे प्रतीत होता है की जुएँ की बाजी हार गए. जंगल में केवल बाघ ही नहीं और भी वन्यजीव है जो वन पर्यटन के समय दिखाई देते है, अगर उनकी दुनिया को हम गाईड से पूछ कर समझे तो हमारा ज्ञान समृद्ध होगा.. नर बायसन की तैलीय चमक को एक नजर देखो, खुश हो जाओगे, जंगल में चिड़ियों का मीठा बोलना, चीतल की आवाज,साल की हरियाली मन को भा लेती है..! जंगल के जर्रे-जर्रे में आकर्षण है, बस देखने वाला नजरिया चाहिए ..! जब ये नजरिया बन जाता है तो जंगल का सौदर्य दिखने लगता है..!

बाघों की कम होती संख्या और उसको बढ़ाने के लिए ये जरूरी ही की बाघों के नैसर्गिक जीवन में और खलल न पहुंचे,इसलिए कान्हा-बांधवगढ़ जैसे नेशनल पार्क में ‘बाघ दर्शन’ का खिलवाड़ बंद कर दिया गया है. पहले यहाँ बाघ हो खोज कर सैलानियों को हाथी से ले जाकर बाघ दिखाया जाता था. लेकिन अब जिप्सी से जंगल भ्रमण में ही बाघ दिखाया जाता है..! घंटों बाघ घिरा रहता और बाद वो इसका आदी हो जाता,ये उसके स्वभाव के प्रतिकूल था..!

अचानकमार  जैसे टाइगर रिजर्व जहाँ बाघ के दर्शन कम होते हैं, वहां बाघ के बजाय सैलानियों को इको पर्यटन की तरफ केन्द्रित होना जरूरी है..यहाँ बायसन,साम्भर, चीतल देखे जा सकते हैं..वन विभाग ने ऊँची जगह से जंगल की विहगम छवि निहारने टावर बनवाये है..ये फोटोग्राफी के लिए बहुत बढ़िया स्थल है,एक छोटी से आंख की पुतली से 360 अंश पर निहारना क्या एक बाघ देखें जाने से सुखद नहीं..! जो जंगल वन्य जीवो को आश्रय देते है और पृथ्वी पर जिनका वितान छाया है वो कुदरत का अनोखा करिश्मा सुकून देने वाला होता है..!


जंगल में परिंदों के मीठी आवाज सारे दिन ही नही,रात में भी जंगल को जीवित रहती है,’ब्रेनफीवर’ की तो रात-दिन ‘पी कहाँ’ की रट रहती है, मोर की तेज केका ध्वनि. कोयल के सुर, और ‘बर्ड फोटोग्राफी’ का जो मजा है वो अपने में अनोखा है..बाघ दिखा तो कोई बात नहीं, उसकी जिप्सी से फोटो ले, अगर न दिखा तो मायूस न हो. वैसे भी ये मान्यता है कि जंगल में बाघ की धारियां उसे छिपाए रखती है, जिस वजह आप बाघ को एक बार देख पाते हैं  और वो आपको दस बार, इस लिए मानो आपको बाघ न दिखा, पर उसने आपको देख लिया होगा...![पहली फोटो नेट की बाकी मेरी]

Monday 21 October 2013

जंगल की बदलती तस्वीर





जमीन,जंगल,जल,जमीर से जुड़े छतीसगढ़ के वन में बसने वाले आदिवासियों के जीवन में परवर्तन का दौर जारी है. उनके रहन-सहन में बदलाव आ रहा है, सस्ते आनाज की योजना के इनको लाभ मिल रहा है. पहले नदी नालों का पानी का वे सेवन करते थे,फिर कुआँ खुदे और आज हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं, कुआं बंद होते जा रहे हैं.झोपडी,मिट्टी के मकान बाद ईट के मकान में तब्दील होने लगी हैं.

परम्परागत बेवर खेती [शिफ्टिंग कल्टीवेशन] की परम्परा ख़त्म हो गई है, मगर नई पीढ़ी के आने के साथ परिवार तो बाधा पर सिंचाई के रकबा कम बढ़ा, आज वनवासी बरसात में धान, मक्का की फसल के आलावा सब्जियों को भी उगाना सीख गए हैं, साल के जंगल में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है और खून शीत गिरती है इस वजह वो शीत से सिंचित भूमि में गेहूं के अलावा सरसों की फसल खूब लेते हैं. सरसों के पीले फूलों से पंजाब का नजारा दिखने लगता है. 

 आखेट युग से वो उबार गए है, वो जानते हैं कि, वन्यजीवों का शिकार  अपराध होता है. मैंने देखा कभी वो शहरी को देख कर अज्ञात भयवश छिप जाते थे. पर आज वैसा नहीं, जंगल बचाने में बालिका और लड़कियां भी शामिल है, एक अक्तूबर को अचानकमार-से कान्हा के लिए कारीडोर बनाने के चल रहे प्रयास के दौरान पदयात्रा में वन्यजीव बचाने में लगी मीतू गुप्ता, ने अपनी मितानी से परिचय कराया. शहरियों से मिलाने अब कोई खौफ उनमें नहीं.,  उनके गीतों में जंगल,जल,जमीन का गुंथन होते जा रहा है,जिसे वो सदियों से जुड़े हुए हैं.

जहाँ स्कूल दूर है छात्राएं साइकिल से जत्थे में स्कूल जाती दिखती है. जंगल के गाँव में कवरेज न हो पर मोबाइल फोन पहुँच गया है. उनको पता है कि किस पहाड़ी या कौन से पेड़ के पास से मोबाइल का कवरेज शुरू होता है. नम्बर वो फ़ास्ट डायलिंग में रखे होते है, उन्हें ज्यादा नम्बर दूजों के चाहिए भी नहीं. पर अब वो दुनिया से कटे नहीं रहना चाहते हैं.

कभी वो दिन थे की जिस गाँव्  के पास से जंगल में सड़क बनती वहां से आदिवासी अपना घर दूर कर लेते, सड़क से शहरी आते और वो इनसे दूर में ही भलाई मानते, इस सड़क से जो आते वो बुरी नज़र वाले भी होते,उनकी बहू-बेटी असुरक्षित होती और उनके मुर्गे भी ये शहरी का जाते. बदलाव के इस दौर  में आज वनविभाग के अधिकारी भी मानते है कि, वनवासियों से जंगल में काम लेने का पुराना दबाव वो  वाला तरीका बेकाम हो गया है. उनके बदन गोदान कम हो गया है और परिधान में साड़ी-सूट सलवार,जींस सब शुमार हो गया है. पर हाट-बाज़ार आज भी रौनक लिए हैं. जहाँ गाँव तक बिजली नहीं वहां ‘क्रेडा’ का काम और बढ़ाना होगा..!


चिकित्सा सेवा, की जंगल के इलाके में बेहद कमी है, मोबाईल का कवरेज नहीं होने के कारण संजीवनी 108 को फोन भी नही किया जा सकता. आदिवासी अब मात्र वोट बैंक नहीं. वो मौन है पर भीतर मुखर है.सब जानकर भी अनजान, साधन की कमी है.वे भोले हैं पर बेवकूफ नहीं.परम्पराओं और संस्कारों से वो परिपूर्ण है, वो जाग चुके है सदियों से सोये थे उनको उनके सारे अधिकारों को देने में देर न हो ..!

Saturday 19 October 2013

अचानकमार टायगर रिजर्व में उहापोह का दौर ..




अचानकमार टायगर रिजर्व छतीसगढ़ का वो जंगल है जहाँ सबसे अधिक बाघ होने का दावा किया जाता है.बस्तर के इन्द्रावती नॅशनल पार्क में बाघों की गणना नक्सली समस्या के कारण संभव नहीं,दावा है कि अचानकमार टायगर रिजर्व में तेरह बाघ हैं,यहाँ बसे बाईस गावों के विस्थापन का काम पीछे पांच साल से किस्तों में चल रहा है.बिलासपुर से अमरकंटक जाने वाली सड़क इसके सीने से गुजरती है,वैकल्पित मार्ग रतनपुर से केवंची,पेंड्रा तक बन गया है पर घाट का कुछ मार्ग रुका है.वो शुरू होगा तो वन्यजीवों को कोलाहल से भी राहत मिलेगी..!

इस नेशनल पार्क की विडम्बना है की कोर एरिया में बसे गांवों में धान की खेती होती है,भुट्टे की खेती के बाद गाँव वाले शीतकालीन सरसों की खेती के लिए भूमि तैयार कर रहे है,खेतों में नागर चल रहे हैं.बैगा आदिवासी यहाँ बसते हैं,दिल्ली के प्रो.डाक्टर खेड़ा बैगा जनजाति के हित में बीते ढाई दशक से लमनी में रहते है वो छापरवा गाँव में बच्चों को पढ़ाने रोज जाते है.. अस्सी फीसद बच्चे बारहवीं में उनके पढ़ाये पास हो गए है,जीवन के अस्सी वसंत देख चुके प्रो.खेड़ा को चिंता है की अब इन बैगा बच्चों को रोजागार सरकार उपलब्ध कराए..! 


बैग अत्यन्य पिछड़ी जनजाति है,कुछ पशुपालन और खेती करना जान गए है,इनकी महिलाओं को गोदना,मोती की माला का खूब शौक है,कौड़ी से श्रृंगार इनको प्रिय है.टायगर रिजर्व होने के बाद विकास के कामों में मंदी हो चुकी है.जिसका असर इस इलाके के वनवासियों पर पड़ने लगा है. पर एक दिन तो इनको अपनी जमीन वन्यजीवों के लिए छोड़कर जाना है.पर सरकारी काम है समय की सीमा तय नहीं है.जिस वजह यहाँ के रहवासी उहापोह में है कि उनका भविष्य आखिर कब तक अधर में लटके रहेगा. अब वो वक्त आ गया है की सरकार मिलजुल कर वन्यजीवों और वनवासियों के हितार्थ कदम उठने में देर न करे.  

Friday 4 October 2013

बाघों को बचाने अचानकमार,कान्हा कारीडोर की पदयात्रा..



वन्यजीवों के संरक्षण की एक नई सम्भावनों का एक नया दरवाजा खोलने की कोशिश अचानकमार-और कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के कारीडोर के रूप में की जा रही है, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के दवारा इस पर काम किया जा रहा है और 84 किमी के इस दुर्गम राह पर वन्यप्राणी संरक्षण सप्ताह के अवसर पर इस राह में पदयात्रा की जा रही है,आम तौर पर वन्यप्राणी सप्ताह किसी होटल के ऐसी सभागार में आयोजित होता रहा, पर अब ये जंगल में पदयात्रा कर जमीनी और कारगर काम किया जा रहा है. यदि ये कारीडोर घने जंगल के रूप में विकसित हो गया तो दोनों पार्क के वन्यजीव एक से दूसरे पार्क में आने-जाने लगेंगे और उनमें इन ब्रीडिंग का आसन्न खतरा कभी हद तक ख़त्म हो जायेगा..!

अब ये किसी से छिपा नहीं कि जंगल में वन्यजीवों को कमी होती जा रही है, जिस कारण करीबी रक्त संबंधितों के आपस में संतान पैदा करने की दशा निर्मित हो रही है, जिस वजह हर नई पीढ़ी अनुवांशिक दोष ले कर जन्म लेती है, इसके निराकरण के लिए नर-मादा के निकट रक्त सम्बन्धित न होना जरूरी हो चुका है. अचानकमार-कान्हा के बीच आदिम गलियारा था,पर बसाहट और पेड़ों की कटाई की वजह इसका स्वरूप पहले सा नहीं रहा है. खुडिया से शुरू हुई पदयात्रा सलगी,पंडारापानी,सिन्दूरखार,पंडरीपानी,दलदली,देवगांव,के बाद बैला गाँव में सम्पन्न आठ दिन में पूरी होगी.

पदयात्रा का प्रांरम्भ बिलासपुर के सीएफ ओपी यादव ने हरी झंडी दिखा के किया,इसअवसर पर डीएफओ हेमंत पांडे,डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के डा.चितरंजन दवे,उपेन्द्र दुबे,सुजीत सोनवानी,के अलावा,मीतूगुप्ता,विक्रमधर दीवान,सौरभ पहाड़ी, बंशीलाल गौरहा,और दीगर प्रान्तों से आये वन्यजीव प्रेमी भी थे. सभी दुर्गम पहाड़ी राह से पहले दिन कोई नौ किमी दूर बीजकछार तक जब पहुंचे तब वनवासियों ने परम्परागत नृत्य से सबका स्वागत किया. पद्यात्रियों को विदाई दे कर अधिकारी और पत्रकार संध्या वापस लौट आये..काफिला अगले दिन इस पड़ाव से आगे बढ़ गया..!

क्या होना चाहिए...

जहाँ जंगल विरल है और गाँव अधिक, वहां इस कारीडोर के गाँव हटाकर, पेड़ लगाये जाएँ ताकि दोनों वन जुड़ इस सघन हो और गलियारे वन्यजीवों  की आवाजाही हो..इसके लिए छतीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सरकार को साथ काम करने की जरूरत है..!
एक खतरा भी—

अगर अचानकमार में सींग वाले वन्य जीवों की संख्या नहीं बढ़ी तो यहाँ के बाघ कान्हा न चले जाएँ..!  

Thursday 3 October 2013

वन्यजीव संबन्धित कानून का प्रचार जरूरी


वन्यजीवों के हितार्थ 1972 का कानून अभी जमीनी स्तर तक नहीं पहुंचा है, न तो इसके बारे में  जंगल के अदना कर्मी ही भली-भांति जानते हैं और न ही अपराधी की वो अपराध कर रहे हैं। वन्य जीवों को बचाने और अचानकमार-कान्हा के कारीडोर की पदयात्रा की शुरुवात वन्य प्राणी सप्ताह मे अभी खुड़िया से शुरू हुई थी कि एक ऐसा वाक़या दरपेश आया।

वर्षा के कारण खुड़िया बांध के निचले इलाके में उगे खरपतवार में एक संवारा जाति का व्यक्ति अपने शागिर्द को कोबरा सर्प की जहर ग्रंथि निकालने का हुनर सीखते दिखा, डब्लूडब्लूएफ द्वारा आयोजित इस पदयात्रा में वनविभाग के अधिकारी और कर्मचारी शरीक भीथे। आधिकारी आगे थे और बाकी कुछ पीछे, जिनमे वन्यजीव प्रेमी फोटोग्राफर के अलावा कुछ छोटे वन कर्मी शामिल थे। उत्सुकतावश कुछ लोग फोटो के लिए उस तक पहुंचे। वो कपड़े की रस्सी को कोबारा के मुंह मे डाल कर एक लकड़ी से इस तरह बना लिया था, जिसे साँप विवश हो उसके इस आपरेशन टेबल पर था। फिर ब्लेड से उसके जहर की ग्रंथि काट कर निकाली,खून बह रहा था,और दांत भी तोड़ दिये।

सर्प के साथ ये अत्याचार देख फोटो लेने वाले उबाल पड़े, लेकिन वन कर्मी खामोश थे,शायद उनको पता ही नहीं था की ये सब अपराध है।मगर जब उनको बताया गया, तब वो सक्रिय हुए और पतासाजी की, कुछ और भी सर्प पकड़ने वाले थे, जो ये मजरा देख भाग खड़े हुए। मगर उनके पिटारे में आधा दर्जन साँप वन विभाग के हाथ लग गए। जिनमें दो रेटस्नेक और बाकी कोबरा थे। सावरा परम्परगत सर्प पकड़ते रहे है, इसको ये भी पता नहीं था की जमाना बादल गया है और ये अब अपराध है।

उसे अधिकारियों ने समझाईश दी और सर्प आगे जाकर छुड़वा दिये। सावरा को कुछ मुआवजा भी उन्होने दिया। उसने बताया इस इलाके में बारिश के दिनों काफी सर्प पकड़े जाते हैं, जिनको विक्रय कर वे कुछ कमाई करते हैं। इसके लिए वो कोई चालीस किलोमीटर दूर करगी गाँव से आया था.

क्या कहता है, वन्यजीव बचाने के लिए सन 1972 से प्रभावी कानून ...

धारा 47-[ख] साफ है कि कोई किसी वन्यजीव को नहीं पकड़ेगा, अपने कब्जे में नहीं रखेगा। उसको बेच नहीं सकता,चमड़ा नहीं निकाल सकता,मार या खा नहीं सकता न ही परिवहन कर सकता है। 

Wednesday 2 October 2013

नई पीढ़ी जंगल देखी,समझी



अगर मन  में उत्साह हो तो मौसम की क्या मजाल जो हौंसला कम कर सके, नई पीढ़ी को जंगल से परिचय करने और प्लास्टिक के अवगुणों को बताने वन्य प्राणी सप्ताह पर नेचर क्लब के प्रमुख सदस्य अचानकमार टाइगर रिजर्व अपने साथ ले गए थे. जाती हुई बरसात आज जाम कर बरस रही थी। बस और कारों का काफिला जब बरीघाट पहुंचा तो बादल पर्वत पर छाए थे। लगा हिमाचल की छ्टा यहाँ बिखेर रही है।

अचानकमार के एक हाल में शालेय बालक-बालिकाओं को पार्क के असि. डायरेक्टर श्री चटर्जी,विवेक जोगलेकर,प्रथमेश मिश्रा, ने संबोधित करते हुए जंगल और वन्यजीवों के महत्व को प्रतिपादित किया। कुछ समय बाद रिमझिम फुहारों के बीच सड़क से जत्था बना का जैवविविधता से परिचय का दौर शुरू हुआ। मैकू मठ के उस स्मारक को नयी पीढ़ी ने जिज्ञासा से देखा जहां मेकू गौंड को बाघनी ने अपना शिकार बनाया था और फिर रेंजर खोखर ने उस बाघनी को मचान से गोली मार के मार डाला था। बाद  विंदवाल वनयगांव में सौर ऊर्जा से विद्युतीकरण को भी जत्थे ने देखा,और जनजातीय सभ्यता से अवगत हुए।
 अब शुरू हुआ जत्थे बार कर मानियारी नदी तक पैदल चलने का दौर,कोई तीन किलोमीटर की इस राह में जत्थे के प्रमुखजन नई पीढ़ी की जिज्ञासा से उठे सवालों का जवाब देते चला रहे थे. पूर्व आए सैलानियों के फैके पलास्टिक को भी बांटोरते गए. बिलासपुर के प्रतिष्ठित स्कूल आधारशिला,बाल भारती,सिद्धिविनायक के अलावा कोटा के डीकेपी स्कूल के कोई सौ बालक-बालिका का जंगल के प्रति रुझान देखते बना, मिलों के सफर बाद उनमें थकावट न थी।वन विभाग ने भी इस आयोजन में सक्रिय भागीदारी का निर्वाह किया.

आयोजन को सफल बनाने मे नेचरक्लब के संयोजक मंसूर खान,शैलेश शुक्ला, भारतपाटिल,दिलीप सप्रे,अभिताभ गौर,गौरव मिश्रा,विक्रम धर दीवान और टीचर्स स्टाफ ने अहम भूमिका अदा की।

बफरजोन में लकड़ी कटाई-

वापसी के दौरान सड़क पर एक व्यक्ति पार्क के बफरजोन में लकड़ी काट कर सड़क पर करते दिखा,उसने सराई की बल्ली कटी थी,जब उसे ललकारा गया तो वो लकड़ी छोड़ जंगल मे भाग निकाला॥

Thursday 8 August 2013

काली हल्दी, अमरकंटक की घाटी में


अमरकंटक की घाटी में न जाने कौन-कौन सी वनौषधि आज भी अपारिचित हैं. शिवरात्रि के वक्त जब यहाँ मेला लगता है, तब बैगा आदिवासी मेले में भांति-भांति के जड़ी-बूटी ले कर विक्रय के लिए पहुँचते है. मैं जब अपने पिताजी के साथ बचपन में अमरकंटक जाता तब इन जड़ी-बूटियों को हैरत से देखता..वक्त गुजरता गया..! बिलासपुर के माटी पुत्र राजनीतिक और साहित्यकार श्रीकांत वर्माजी के देहावसान बाद उनकी धर्मपत्नी श्रीमती वीणा वर्मा राज्यसभा की सदस्य बनी, उन्होंने सांसद निधि को बिलासपुर के विकास कार्यो में लगाना शुरू किया..बीआर यादव मप्र के वन मंत्री थे..सन 1994-1995 की बात होगी, श्री यादव ने मुझे कहा-वीणाजी अमरकंटक देखना चाहती है. आप साथ चले जाएँ. बस फिर अगले दिन वीणाजी मैं और मेरी बेटी प्रिया और रामबाबू सोंथालियाजी का सुपुत्र मोनू कार से निकल पड़े..!

अमरकंटक की बिलासपुर से दूरी 125 किमी है, ये रास्ता अचानकमार सेंचुरी [अब टाइगर रिजर्व]  से हो कर गुजरता है. श्रीमती वीणा वर्माजी से मेरा रिश्ता भाई-बहन का है. मैंने बताया कि जिस राह से गुजर रहे हैं, वो बैगा बाहुल्य हैं, उनकी इच्छा प्रकट की किसी बैगा गाँव को देखा जाये, राह में लमनी पड़ा, इस गाँव से मैं परिचित था. वहां रुके तो वनकर्मी भी साथ हो लिए, गाँव का मुखिया हमें गाँव दिखने ले चला. मिट्टी से बने घर, छत खपरों का, बैगा जनजाति श्रृंगार प्रिय होती है, महिलाओं का गोदना, गले में लाल छोटे मोतियों की ढेर सी माला, देख वो दंग रह गई. तब बैगा पुरुष भी सिर पर बाल रखते थे. गाँव काफी दूर तक फैला है.

बैगा जड़ी-बूटी की चिकित्सा का ज्ञान रखते हैं. मैंनें वीणाजी को बताया कि अमरकंटक की इस घाटी में कभी काली हल्दी मिलती थी पर कभी देखी नहीं है. गाँव का मुखिया अपने घर ले आया और चारपाई बिछा कर बैठाया, कुछ देर बाद वो कुदाल लाया और आंगन में केले के पेड़ के नीचे से कोई ‘जड़ी’ खोद लाया..गाढ़ा नीला-काला द्रव उससे निकल रहा था. अक्टूबर-नवम्बर चल रहा होगा..हल्दी की गांठ बन गई रही..सुंगध से समझ आ गया कि यही काली हल्दी है.उसके पत्ते सूख चुके थे, मुखिया ने दो गांठ काली हल्दी की हमें दी, हमने जब पैसा पूछा तो उसने लेने से इंकार कर दिया.

काली हल्दी के गांठ वीणा जी अपने साथ दिल्ली ले गई, मैंने घर आकर एक में लगा दिया,पहली बरसात के साथ उसके पीके फूट पड़े और हर साल में उसे बढ़ते गया, आज मेरे घर और फार्म हॉउस में काली हल्दी काफी उगी है. इसके पत्तों में हल्दी सी खुशबू होती है, पर पत्तों के मध्य काली पट्टी होती है..इसे कृष्णा हरिद्रा भी कहते हैं, आम हल्दी की भांति से सेवन नही किया जाता, पर बताया जाता है कि इसमें मजबूत एन्टीबायोटिक गुण होते है. कुछ तंत्र-मन्त्र को मानाने वाले इसे खोजते मिलते हैं ..! अमरकंटक के पहाड़ों पर ये यदाकदा दिखाती है तो लगता है कि कभी दुर्लभ काली हल्दी आज लुप्त होने के खतरे में नहीं..!

Friday 28 June 2013

वन्यगाँव में कुपोषण और कमजोर पशुधन



पशुधन विकास के लिए चलाई गई योजना किसी प्रदेश की ग्रामीण आर्थिकी के सफलता असफलता को बताती है, इसलिए ही पशुधन शब्द का उदय हुआ होगा. मैंने ये निरंतर महसूस कर रहा हूँ की छतीसगढ़ के गाँव में पशुधन कमजोर होता जा रहा है, वैसे वो पहले भी कमजोर था. अगर पशुधन कमजोर रहा तो जंगल में आदिवासी- और ग्रामीण बच्चे कुपोषित रहेंगे.

सन 1972 के आसपास कालेज टूर में हम छात्र प्राचार्य रामनारायण शुक्लजी के साथ कश्मीर गए थे, श्रीनगर में आयोजित एक सरकारी प्रदर्शनी के एक स्टाल में बड़ी भीड़ लगी थी, जिज्ञासावश में भीड़ के भीतर गया तो पता चला की शेख अब्दुला साहब, गाय देखने आए हैं, मैं तुरंत वापस लौटा और साथियों से कहा’ चलो इस स्टाल को रहने दो, भरत शर्मा ने पूछा क्या है, मैंने कहा- जर्सी गाय हैं. कश्मीर के किसी विभागीय अधिकारी ने ये सुन लिया, मुझे पूछा आप लोग कहाँ से आए हैं. मैंने कहा- मध्यप्रदेश  के बिलासपुर से, वो बोला तभी कहा रहे हो, ‘जर्सी गाय है’, वो जानता था कि, यहाँ कोनी में जर्सी डेयरी  फार्म है.

मुझे याद है कि मंत्री द्वय अशोकराव और बी.आर यादव के सयुंक्त प्रयासों से  सकरी गाँव में पशुधन मेला आयोजित किया गया था, जहाँ देश भर का उन्नत पशुधन पंहुचा था.  रेमण्ड के श्री विजयपत सिंघानिया ने गोपालनगर में सीमेंट प्लांट की स्थापना के साथ आधुनिक डेयरी की स्थापना की जिसकी  थी, जिसकी देखभाल डा.श्याम झावर करते, यहाँ से गाँव तक पशुधन उन्नत के लिए नेटवर्क बुना गया. जिसका लाभ भी मिला. पर आज गाँव के पशुधन की दशा बड़ी खराब है. लगता है सरकारी कोशिशें दूर   गाँव-जंगल में पहुंचने के पहले दम तोड़ देती है. जंगल में बकरे-बकरी बाँट कर काम चलाया जा रहा,पर ये नाकाफी है, जब तक गाय की नस्ल उन्नत नहीं होती, जंगल से बाल कुपोषण दूर नहीं हो सकता.

 जिले के एक बड़े साहब ने अपने बच्चे की पहली वर्षगांठ मनाई, कुछ पत्रकारों को भी भोज पर आमंत्रित किया गया था. पर उनको भोज का कारण नहीं बताया गया था. भोज कुछ लोगों तक सीमित  था, पर बाकी गिफ्ट में कुछ न कुछ लाए थे, मैं खाली हाथ था, पर कुछ दिन मैंने उनकी श्रीमती जी को एक ‘बैगा माँ’ की फोटो लेमिनेशन करा के भेंट कि जिसमें वो साल भर के पुष्ट बच्चे को बाजू में बंधे दिखाई दे रही थी, उन्होंने मेरी भेंट स्वीकारी और पूछा कि, कौन है ये ? मैनें बताया कि ‘लमनी गाँव की सोन कुंवर है. एक दिन वो लमनी गई और बाद में मुझे बताया कि  सोना कुंवर का बेटा पहले सा तगड़ा नहीं रह गया है. जाहिर था, जब तक माँ का दूध मिला वो तगड़ा था, बाद खुराक की कमी के कारण वो कुपोषित होने लगा. पिछले दिनों में लमनी गया तो पता लगा सोन कुवर गाँव के दूसरे कोने में खेती के कारण रहने चली गई है.

 पशुधन को उन्नत बनाने जो काम किया गया वो अंजोरा और कुछ निजी डेयरी में सिमटा है, ये विकास के टापू हैं और बाकी अभाव का समुंद्र, बुरी दशा दूर जंगल के इलाके में है. यहाँ छोटी देसी गाय चार माह दूध दे तो बड़ी बात. एक लोटे में गाय को दूह लिया जाता है, गर्मी में सूखा और बारिश में फसल के कारण चराई पर रोक, खुद की माली दशा ठीक नहीं, तो भला पशुपालक गाय को भरपेट पौष्टिक दाना कहा से दें.


छोटे-छोटे बैल बारिश के शुरुवाती दिनों में नागर खींचते दिखाई देते हैं. कुछ कमजोरी के कारण खेत में थक कर बैठ जाते हैं. कृत्रिम रेतन का प्रयोग सकारात्मक रहा, पर कागजी आंकड़ों के खेल का अंजाम भी दिख रहा है. दूर वन्यगाँवों  में ये नेटवर्क काम किया हो ये वहां की गाय से नहीं लगता. 
गाँव-गावं में परिवहन के आधुनिक संसाधन आ चुके है. शानदार सफेद बैल और उनकी बैलगाड़ी का युग खत्म हो गया. सरकारी प्रदर्शनी में पशुधन जैसा दिखता है, वैसा गाँव में कहीं नहीं, छतीसगढ़ के गांवों में छोटे-छोटे बैल हैं, कभी बैल किसान के भाई माने जाते पर जोताई-मिसाई के आधुनिक साधनों की वजह उनकी उपयोगिता कम हो गई, कदाचित इसलिए उन पर ध्यान भी कम होता जा रहा है. 

अब तो बस ‘पोरा’ के ‘तिहार’  के पर  दिन पूजा ज़रूर होती है. डेयरी के लिए महाराष्ट्र के बाजार से उन्नत नस्ल की गाय मोल लाई जाती हैं. 15-17 लीटर दूध देने वाली गाय पचास हजार की. गुजरात,हरियाण से गाय की खरीदी होती है,पता चला ही कि पंजाब ने अन्य प्रान्तों को गौ निर्यात पर रोक लगा दी है. यदि वन इलाकों में जन स्वास्थ की ईमानदार कोशिश करनी है और गाँव और जंगल में बच्चों को कुपोषण से बचाना है तो वहाँ हर घर गाय का दूध उपलब्ध हो ये प्रयास जरूरी है..! ‘वरना कुपोषण भारत छोड़ो’ महज नारा बन कर रहे जायेगा.जब गाऊ माँ ही कुपोषित होगी दूध कम दिन व थोड़ा देगी तो वनपुत्रों को कुपोषित होने से भला कैसे बचाया जा सकता है.[फोटो और लेख -प्राण चड्ढा]

Thursday 27 June 2013

भारत से चीता यूँ हुआ ख़त्म .


धरती का सबसे तेज धावक व शिकारी चीता [cheeth] कभी भारत में था. अंतिम तीन चीते छतीसगढ़ की कोरिया रियासत 1948 के आसपास मारे गए.. फिर कभी भारत मैं चीता नहीं दिखा.अब वो ईरान और अफ्रीका में ही शेष है.
बिल्ली की ३६ प्रजातियों मैं चीता भी शामिल है.समान्यता तेंदुए को ही चीता मान लिया जाता है, पर काले धब्बे में अंतर और चीते की आंख के जबड़े तक दोनों तरफ काली लकीर होती है. कोरिया रियासत का तत्कालीन राजा कुशल शिकारी व प्रजापालक था . उसके राजमहल में देसी-विदेशी जानवरों की ट्राफी का आनोखा संग्रहालय आज भी देखने लायक है..बताया जाता है की रात शिकार के दौरान ये तीनों चीते साथ मारे गए थे.. तीनों नर थे,और पूरी तरह जवान भी न थे, तब माना गया कि , इनके माँ- बाप जीवित होंगे,पर वो कभी न दिखे.
आज जब देश में चीते को फिर से बसने की बात की जा रही है, तो कोरिया[ बैकुंठपुर] का दावा प्रबल है,क्योंकि यहाँ चीते के लिए आदर्श परस्थितियाँ मौजूदा हैं.[राहुल सिंह जी,आपने टिप्पणी में जो चूक बताई थी सुधार दी है, आभार ]

Friday 21 June 2013

हरियर छतीसगढ़,गुजरात की भेड़ों का चरागाह




‘’हरियर छत्तीसगढ़ गुजरात की हजारों भेड़ें का चारागाह बना हुआ है, सारे-साल ये भेड़ें मैदानी इलाके में चरती हैं और वर्षा ऋतू में बारिश से जमीन गीली होने और धान फसल  अभियान के लिए किसानों की  खेत जुताई की वजह ये चौमासा बिताने ये ‘रेवड़’ पहाड़ी जंगल की और रुख करते हैं. कोई चार दशक से मैं इनको देख रहा हूँ, जब गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी गुजरत के प्रगति का दावा कहते हैं कि, गीर के जंगल में शेर दिखने के काम महिला गाइड करती हैं, तब मैं सोचता हूँ कि, वो तो ठीक है, पर छतीसगढ़ के बाघ सहित अन्य वन्य जीवों को लिए गुजरात के रेवड़ खतरा क्यों बने हैं. यद्यपि इनमें कुछ रेवड़ राजस्थान के भी हो सकते हैं.

 यायावर जीवन व्यतीत करने वाले ये पशुपालक मुझे जंगल जाते-आते दिख ही जाते हैं, हाल में ही जो झुण्ड देखा वो काफी विशाल था. पच्चीस दे ज्यादा ऊंट, पचास से अधिक बड़े मजबूत और वफादार कुत्ते और दो हजार दे अधिक भेंड़. ऊंट पर अपने बच्चे और कुत्तों के पिल्ले, महिलाएं काले परम्परागत कपड़ों में और पुरुष सफ़ेद कपड़ों में..! ऊंट के ऊपर ही बच्चों और पिल्लों के जो मैत्री बन जाती है, वो आजीवन बरक़रार रहती है..! कुत्ते भेड़ों को हिंसक वन्य जीवों से बचाते है, चोर की क्या मजाल जो रेवड़ के करीब भी पहुँच जाए. पिल्ले भेड़ों का दूध पर पलते हैं, और फिर मानो वे दूध का कर्ज अदा करने उनको चराते हैं, कोई भेड़ रेवड़ से अलग हो जाए तो घेर कर वापस ले आते हैं. भेड़ों के साथ ऊंट मालवाहक का काम करते हैं,बच्चे,बीमार,तम्बू, पिल्ले अथवा भेड़ के मेमने भी ऊंट के ऊपर होदे में सफर करते हैं, भेड़ें नीचे तो ऊंट पेड़ों से चारा पा जाते हैं. जिधर ये काफिला गुजरा सारा चारा सफाचट .

कभी वो दौर था जब खेत में रात भेड़ बैठाने के लिए ये रेवड़ वाले पशुपालक किसानों से पैसा लिए करते थे, किसान भेड़ों के मल-मूत्र को खाद मानते, ये जैविक खाद तबतक प्रचलित रहा, जबतक यूरिया,पोटाश, और सुपरफास्फेट जैसे खाद प्रचलित न थे, मगर आज ये अवधारण बदल चुकी है, अब माना जाता है कि, भेड़ें जो खरपतवार के बीज खाती हैं, वे भी उनके पेट से हो कर खेत में पहुँच कर उग जाता है, जिसे फिर खेतों से इसको  नष्ट करना बड़ी समस्या बन जाता है. इसलिए किसानों की नजर में यह उपयोगिता और भेड़ पलकों को इससे मिलने वाली आय जाती रही.

रेवड़ वालों की आय के स्रोतों में कोई  कमी नहीं, भेड़ का दूध, उससे बना घी, साल में दो बार मिलने वाला बेशकीमती ऊन, उनकी आय का मुख्य स्रोत है. इसके अलावा भेड़ों की बिक्री भी वे करते है, ये सब छतीसगढ़ की हरी-भरी भूमि पर मुफ्त चराई का नतीजा है , बताया जाता है कि, वन विभाग ने चराई शुल्क का प्रावधान है .पर इन भेड़ों की होने वाली बीमारी वन्यजीवों को न हो इस ‘संरक्षण’ के चलते जोर नहीं दिया गया. लेकिन इससे भला क्या होता है. अब ये काम वन विभाग की निचले कर्मियों की ‘सेटिंग’ से हो जाता है. मगर ईमानदार वनकर्मी इनको अपने जंगल में फटकने नहीं देते..! उनका मानना ही कि भेड़ें जिससे चरती है वो फिर नहीं पनपता, क्योंकि वे उनमें नीचे से चरने में सक्षम होती हैं, जिस वजह फिर कांसे फिर नहीं फूटते.

भेड़ पालकों का चराई क्षेत्र में मेलक रेंज के निचला हिस्सा आता है. वैसे ये हर नक्सल प्रभावित इलाके को छोड़ कर पूरे छतीसगढ़ के पहाड़ी और मैदानी इलाके मैं यायावरी जीवन बिताते हैं. उधर मोदीजी जब दिल्ली में गुजरात के समग्र विकास का ढ़ोल पिटते है तब मुझे लगता है कि वे इस यायावरी पशुपालन के युग से अवगत क्या वे नहीं हैं ? क्या रेवड़ ले कर छतीसगढ़ में भटक रहे गुजरात के इनकी प्रगति के बिना गुजरात की समुचित तरक्की मानी जा सकती है. कुछ वापस गुजरात चले जाते हैं तो दूसरे छतीसगढ़ पहुँच जाते हैं, मीलों दूर भटकन का जीवन,दुनिया आगे निकलती जा रही है.
          
 उधर वन विभाग के आलवा ये पुलिस विभाग के निशाने पर भी रहते है, पर पैसे और इनकी लाबी की ऊँची पहुँच इसको बचाए चलती है. इनको ये जानकारी रहती है की कहाँ किस मौसम में पानी मिलेगा और कहाँ चारा, जब संचार के संसाधन न थे तब भी ये रेवड़ वाले एक दूसरे की स्थिति के बारे में जानते थे और ठीक समय पर मिल जाते थे. आज मोबाइल से सम्पर्क का ये काम करते है. कोई पच्चीस साल पहले अचानकमार इंचार्ज एम् आर ठाकरे, पत्रकार अमित मिश्रा और मैं सुदूर गाँव ‘छिरहाता’ जा रहे तब किसी रेवड़ से बिछड़ गई दो भेड़ें रह में मृतप्राय: मिलीं, गाँव में ले जाकर पानी पिलाया तो होश आया. पर ऐसा कम होता है.

मोदी जी, अब ये बदलाव चाहते हैं.

जंगल में भेड़ पालने और यायावरी जीवन व्यतीत करने वाले इस जीवन से मुक्ति चाहते हैं. नर्मदा नदी की उदगम स्थली अमरकंटक में कल्याण सेवा आश्रम ने सन 1998 में विशाल आश्रम स्कूल की स्थापना की, तब ये कच्छ और भुज के ये लोग बाबा कल्याणदास से मिले और कहा- हम चाहते हैं हमारे बच्चे पढ़ लिख कर जीवन बदले, कल्याण बाबा ने उनको हिमाद्री मुनि से मिलाने को कहा कि, वे आश्रम स्कूल का कार्य देखते है. पहले पांच बच्चों ने नर्सरी में प्रवेश लिया फिर कुल चालीस बच्चे इस स्कूल में आ गए, आज सभी ने सीबीएससी के बारहवीं तक पढ़ाई पूरी कर ली हैं, और अब गुजरात में उच्च शिक्षा ले रहे हैं, हिमान्द्री मुनि ने बताया कि पढने के अलावा वे खेल में भी प्रवीण निकले ,पांच छात्र तो नेशनल तक खेल में पहुंचे..! अब कभी बाबा कल्याण दास किसी आयोजन में गुजरात जाते हैं तो युवा हो गए ये छात्र उनसे मिलाने भी पहुँच जाते है.     

Friday 14 June 2013

बरसो रे कारे बदरा, बरसो रे





महाकवि कालिदास के विरही यक्ष का संदेश ले जाने वाले मेघ तेरा स्वागत है, तेरे स्वागत में साल के घने वनों में हरी चादर ओढ़ ली है. जिस भांति मछली जल बिन नहीं रह सकती, वही दशा चातक की बनी है, तेरे आसरे खेती करने वाले किसान तुझे धरासार बरसते देखना चाहते हैं, जिससे पानी का खेती में कम न हो.

कोयल ने कुहु अब बंद है, वो जानती है कि अब जब बरसाती मेढ़क शोर करने लगे हैं. तो उसकी कौन सुनेगा. पर मैं जानता हूँ कि, मीठा गाने वाली कोयल ने कौवा को उल्लू बना दिया है और उसके घोंसले में अपने अंडे दे दिए हैं, अब कौवा दम्पति पाले कोयल के बच्चे. इसलिए मैं मीठा बोलने वालों से ‘तीन-तौबा’ करता हूं. जंगल में घने साल के पेड़ अमरकंटक की घाटी में छाए हैं, इस घाटी में बारिश कुछ पहले शुरू हो जाती है और उसके साथ झींगुर गाने लगते हैं,  ये उनके मिलन का संगीत. एक साथ करोड़ो झींगुर का ये ‘चिचिची’ का शोर भरा संगीत, टाइगर  वेली की सड़क के दोनों तरफ जंगल को जीवंत बनाए रखता है.

बगुला-भगत मानसून से पहले रंग बदलता है. सफ़ेद बगुले के सर से पीठ तक पीले पर निकल आते है, प्रजननकाल में उनका रूप बदल के सुंदर हो जाता है. काले कर्मोरेंट और ये सफ़ेद बगुले रंगभेद नहीं मानते और किसी सुरक्षित पेड़ को कालोनी बना साथ-साथ चौमासा बिताते हैं. मानसून के कारण नदियाँ बहाव में होती हैं, और ऊपर चढ़ती मछलियों को ये तट से पकड़ कर घोंसले में आए नए  मेहमान का पेट भरते हैं. गरमी और वर्षाजनित नमी से परिंदों के अण्डों से बच्चे फूट निकलते हैं. पक्षी इस ऋतू में बढ़े कीट-पतंगों को पकड़ कर बच्चों का पोषण करते हैं, यदि वे ये न करते तो किसानों की लगाई फसल को न जाने कितने और कीट प्रकोप का समाना करना पड़ता.
काले घनेरे मेघ के नीचे जब बड़े सफ़ेद बगुले उड़ाते हुए तेजी से अपने आशियाने को जाते दिखाई देते है तो मैं जाना जाता हूं कि अब तेज बारिश होने वाली है.

 उड़ने वाली भूरी बत्तखें [विस्लर] जब सीटी बजाते नीची उड़ान भरतीं हैं, तब  मानते हूं कि ये अंडे देने कहीं जगह खोज रहीं हैं. काली मैना बिजली के खम्बों में घोंसले बनाती हैं तो मैं हैरत में होता हूँ इसे कैसे पता चला कि मेघ आने वाले है. मेगपाई रॉबिन और बुलबुल जब मधुर गाने गाती हैं  तब लगता है मेघों के बरसने से पहले ही वो ख़ुशी के गीत गा रही है. महोक की जुगलबंदी का कोई सानी नहीं, जब में पीसी में लिख रहा हूँ कोई कथायी महोक जोड़ा दूर बैठा एक दूजे से बात कर रहा है.चीटियाँ अंडा ले कर ऊपरी स्थान को निकल पड़े तो मानो बरखा भरपूर. न जाते ये जीव कैसे जाने जाते है की मेघ तुम आ रहे हो.

किंगफिशर की तो बात निराली है, लम्बी चोंच इसका हथियार है, जितना सुंदर रंग मछली पड़ने   उतना ही हुनरबाज ये परिंदा, गोताखोरी कर मछली पकड़ने में माहिर. मैं जब अमरकंटक जाता हूं तो माँ नर्मदा के उदगमस्थली के कुंड में छोटे किंगफिशर को गोताखोरी कर मछली पकड़ते देखता हूं. वो कुंड के पास किसी मन्दिर पर चुपके से बैठा होता है. गरमी खत्म नहीं होती कि किंगफिशर तेज लम्बी गुहार लगता है बरसात के लिए, कदाचित वो जानता है, बारिश न हुई तो नदी-जलाशय में मछलियाँ कहाँ सा आएगी ..मोर तो बादल देख छम-छम कर नाच उठता है. उसकी केका ध्वनि दूर तक समां बांध देती है. जेकाना [जल मोर] और शोर मचाने वाली जलमुर्गी दूर खेतों तक पहुँच जातीं हैं. नदियाँ,नाले,तालाब, खेत सब प्यासे हैं. काले बदरा इनकी प्यास बुझा.

हे काले मेध, तू मित्र बनके आ और जो तेरी प्रतीक्षा करते हैं, उनकी मन की प्यास पूरी तरह बुझा. कालिदास के मेघदूत, जिसका दूत तू बना, वो तो सर्वांग सुन्दरी पत्नी से दूर विरह कट रहा था पर ये सब तो तेरी विरह में हर साल आठ-नौ माह गुजरते हैं..अब आया है, तो ‘चातुर्मास’ इनके साथ बिताना.
[पहली फोटो जंगल की मेरी ,शेष गूगल से साभार-प्राण चड्ढा ]     .