Wednesday 24 April 2013

आदमखोर बाघनी का रेंज अफसर खोखर ने किया शिकार


अचानकमार टाइगर रिजर्व में अचानकमार-विन्दावल गाँव के बीच सड़क के किनारे इस स्मारक में लिखा है.-यहाँ मैकू गोंड़ फायरवाचर को आदमखोर शेरनी [बाघनी] ने 10-4-1949 को मारा था,जिसे तारीख 13-4-49 को एम् डब्लू के खोखर रेंज अफसर कोटा ने 'मरी' पर बैठ के गोली से मारा...आज भी ये इलाका बाघ का है. पर इन दोनों गाँव में बहुतेरों को बाघनी के मैकू को मरने और फिर उसे खोखर साहब द्वारा मचान से गोली मरे जाने की कहानी आज भी जुबानी है.
 शिकार की इस दास्ताँ को शिकारी वहीद खान खोखर ने अपने अन्य अनुभव के साथ किताब में लिखा था. जिस अविकल मेरे पत्रकार मित्र राजू तिवारी ने अपने प्रकाशन में नया कलेवर दिया है. कुछ माह पहले मैं मित्र डा.चन्द्रशेखर राहालकर,और लखनऊ ने आये लेखक मोहन सर के साथ विन्दावल गाँव पहुंचा था. इस बाघनी के विषय में बताया गया कि उसके खौफ से गाँव में रहना कठिन हो चला था.ये इलाका बिलासपुर से अमरकंटक की सड़क पर पड़ता है.

बाघनी दवारा मैकू का शिकार –-> उन दिनों आदमखोर बाघनी एक के बाद एक आदमी मार रही थी.फायर वाचर मैकू  अपने फायरवाचर साथी परसादी के साथ सड़क के किनारे सूखे पत्ते हटा रहा था.बाघनी करीब दीमक की  बाम्बी [छोटे से टीले ] के पीछे घात लगा कर छिपी थी. उसने परसादी के सिर के ऊपर  से छलांग लगाते हुए मैकू को गर्दन से पकड़ कर एक झटके में  ही गर्दन तोड़ दी,फिर वो परसादी पर झपटी लेकिन वो कुछ  दूर निकल गया था ,.वापस आकर बाघनी ने मैकू! को घसीट कर जंगल में ले गई .

बाघनी का रेंज अफसर दवारा शिकार--->रेंज अफसर वहीद खान खोखर को जब ये पता चला तो वो पांच सौ बोर की राइफल  और बारह बोर की गन के कर कोटा से मौके पर  पहुंचे.लेकिन बाघनी को मारने की योजना जो बनाई जाती वो कामयाब न होती,खौफजदा हो कर एक स्थनीय शिकारी भी साथ छोडकर चला गया. तब मैकू की काफी खाई लाश को पेड़ से बांध कर [ताकि बाघनी खींच कर न ले जा सके] करीब के पेड़ पर मचान बनाया गया .उनके साथ धनुआ पनका पैसे व इनाम के प्रलोभन लिय  मचान में बैठ गया. मचान. मचान 18 फिट की ऊंचाई पर बंधी गई थी , बाघनी मैकू की बची लाश को खाने दबे पाँव आई. कुछ लम्हे बाद मचान से रौशनी के साथ गोली चली और घायल हो के  बाघनी जंगल भाग निकली .सुबह होने पर कुछ दूर ही  झाड़ियों में वह  मरी हुई मिली ,उसे मरा देख  वनवासियों में जश्न मनाया. ये बाघनी और भी लोगों को अपना शिकार बना चुकी थी.

आदमखोर होने का कारण—>बाघनी के अगले पंजे में कभी गोली लगी थी ,घाव तो भर गया था पर इस  वजह वो फुर्तीले जंगली जानवर पकड़ने में असमर्थ हो गई परन्तु  मनुष्य  सहज पकड़ने की वजह आदमखोर हो गई थी .इस शिकार के बाद खोखर को पुरस्कृत किया गया और इस स्मारक को बनाये जाने की अनुमति दी गई.
फेक्ट फ़ाइल्-->
1. मैकू हट्टा-कट्टा ,अविवाहित जवान था. शिकार के बाद बाघनी एक से अधिक बार उसे खाने आई.
2. कुछ बाघों का शिकार कर चुके गवारु पंडित की हिम्मत जबाव दे गई थी और उसने इसके शिकार में खोखर साहब का साथ देने से इंकार कर दिया था.
3.गोली पांच सौ बोर की राइफल से चलाई गई थी. इस बघानी को पहले कभी एलजी का छर्रा अगले  पंजे में लगा था .घाव तो भर गया था,पर ये पैर कमजोर हो गया था.
4. बघानी 9 फिट लम्बी थी..बाघ को पूंछ से नाक तक की लम्बाई में नापा जाता है.

जंगल का फूल बगिया की रौनक


 बचपन की याद बड़े होने तक बनी रहती है ,बशर्ते कोई खास बात हो.  मेरे पिताजी सीएल चड्डा ने  घर की बगिया में कलिहारी के पौधे को लगाया था. हर साल कंद से पौधा बरसात में फूट पड़ता और जाती बरसात में पीले फूल पर लाल रंग लिए अजब पंखुडिया वाले कुछ फूल खिलते.लड़कपन  में देखे इस सुंदर फूल की याद बनी रही.,,वर्षो बाद एक दिन मैं अपनी पुत्री प्रिया  महाडिक के साथ जंगल की छोटी सी  पहाड़ी पर चला रहा था. तभी इसका एक नन्हा सा पौधा दिखा,.पत्तियों की खूबी के कारण मैं उसे पहचान गया.फिर क्या था ,कार से टायर बदलने के कुछ औजारों से प्रिया ने उसे खोद का निकल लिया..अब  तीन सालों हर साल ये फूल हमारी बगिया की शोभा बढ़ने जाती हुई  बरसात में खिल जाता  है.बेलनुमा ये पौधा पत्तियों की घुमावदार नोक से आस-पास किसी सहारे को लेते हुए ऊपर बढ़ता है ,और चार-पांच फिट की ऊंचाई पर इसके मोहक फूल आने लगते हैं.फूल तो दस-बारह आते हैं पर बगिया में बहार आ जाती  है.
इसका वानस्पतिक नाम gloriosa superba है .औषधीय गुणों के अब  इसके प्राकृतिक रूप से मिलने में दिक्कत आने लगी है.संस्कृत में इसका नाम अग्निशिखा है . पीली पंखुडियो पर सुर्ख लाल के कारण ये नाम इस दिया था है.  फूल करीब दस दिन तक रहता है और अंतिम दिनों लाल राग का हो जाता है.जंगल से एकत्र कर इसके निर्यात पर प्रतिबन्ध लग है.'गठिया वात ,जटिल प्रसव,में या उपयोगी है,बालुई-पथरीली भूमि के इसकी खेती की जा सकती है..वर्षा में उगने और वर्षा में ही तैयार होने के कारण इसमें सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती .

Tuesday 23 April 2013

अमरकंटक घाटी के सदा हरे-भरे वन

अचानकमार टाइगर रिजर्व और अमरकंटक घाटी के सदा हरे  साल के वनों पर साल बोरर का हमला बीती सदी के अंतिम दशक में हुआ,तब अविभाजित मध्यप्रदेश का कान्हा नेशनल पार्क भी इससे बच न सका .कान्हा के फील्ड डायरेक्टर राजेश गोपाल थे .एक छोटे तथा जीवट बोबर न मजबूत साल के पेड़ों को सूखा  दिया , इससे बचने के लिए बोरर प्रभावित लाखों पेड़ो को काटा गया .

इन सबके बावजूद साल का जंगल आज भी घना है. जिसकी हरियाली आँखों को सकूँ देती है. अचानकमार टाइगर रिजर्व के इलाके में आने वाले एक वन को दियाबार कहा जाता है. यहाँ पेड़ इतने घने थे कि धूप जमीन तक सीधी नहीं पहुँचती. [दिया जला के जाना होता है ] .आज भी साल के यहाँ घने और मजबूत पेड़ है,. इसे बाघ का इलाका माना जाता है. बीस साल पहले बंगाल से आये सैलानियों की मेजबानी मैं और पत्रकार अमित मिश्रा कर रहे थे ,खुली जीप मैं  चला रहा था. तभी  दियाबार जाने से पहले मुख्य सड़क पर दिन को बाघ बैठे सबने देखा . पेड़ पर बंदर किटकिटा कर खतरे की सूचना दे रहे थे . जब जंगल इतना घना और नैसर्गिक होगा तो बाघ और दूसरे वन्यजीव कैसे न होंगे. पर बदलते समय में उनको और अधिक सुरक्षा की जरूरत है.

3055 रूपये में बना बंगला सौ साल से खड़ा



कोई मानेगा कि जंगल में दो कमरे ,बीच भोजन कक्ष का आलीशान बंगला मात्र  तीन हजार में बना होगा.नहीं न पर ये सच है,आज से सौ साल पहले ये डाकबंगला 3055रु. 8आना 5पैसे[पाई]की लागत से बना है,ये डाकबंगला बिलासपुर-अमरकंटक सड़क मार्ग में 85 किलो मीटर दूर गाँव लमनी में खड़ा है. ब्रिटीश वास्तुशिल्प से निर्मित इस डाक बंगले का निर्माण जून 1913 में हुआ था.ये इस बंगले का शताब्दी साल है, जून में सौ साल पूरे होने हैं . सौ साल से ये सुंदर बंगला आज भी जवान है. यहाँ रुकने वाले ने सौ साल तक अमरकंटक की घाटी की शीतल हवा का गर्मी के ऋतु में भी उठाया.मगर वन्यजीवों को बचाने सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए अचानकमार टाइगर रिजर्व के इस सरहदी डाक बंगले में रात्रि आवास प्रतिबंधित कर दिया गया. [ऊपर की फोटो- डाक बंगला ,नीचे  डाक बंगले का ब्यौरा.]

Monday 22 April 2013

छतीसगढ़ के जंगल में बिग- फाइव खतरे के क्रम में







छतीसगढ़ के जंगल में फाइव-बिग को खतरे क्रम से लिखा जाए तो – वनभैंसा, बाघ,बाईसन,तेंदुआ और हाथी...,हाथी तीन दशक पहले तक इन जंगलों में नहीं थे मगर, झारखंड,उड़ीसा,बिहार से पहुंचे और अब ये यहीं के हो कर रह गए हैं .
वनभैंसा [babualus arnee] छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु है, मगर ये उदंती में एक मादा और सात नर बचे हैं. इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान में इनकी मौजूदगी है,WTI के राजेन्द्र प्रसाद  मिश्रा ने कुछ समय पहले वहां दौरा करके ये बात कही. बस्तर के शरद वर्मा भैंसे की कम होती संख्या पर चिंता जाहिर करते रहे हैं.ये इलाका नक्सल प्रभावित है और वन आधिकारी इनकी सही गिनती करने में असमर्थ हैं. सरकारी आकड़ा कहता है इनकी संख्या सौ से अधिक है,पर गैरसरकारी जानकार  इसका आधा भी नहीं मानते.
बाघ[pantbera tigris] छतीसगढ़ राज्य निर्माण के अवसर पर अविभजित मप्र में 927 बाघ थे जिसमें
छतीसगढ़ में दो सौ बाघ थे.तब गिनती पदचिन्हों के आधार पर होती थी. आज और सही तरीके उपलब्ध है.इसके मुताबिक बाघ 20 से 30 ही रह गये हैं. मगर इनकी संख्या बढ़ने की संभावना बनी है.क्योकि वन विभाग की नींद खुल गई है.
बाइसन[bos gaurteus] को मैं खतरे से बाहर मानता हूं,इस विशालकाय जीव का शिकार बाघ के बूते की बात है,और उनकी गिनती कम हो गई है.तेंदुआ इनके बिछड़े शावक को भले शिकार बना ले पर झूंड की सुरक्षा में वो इनपर हमला नहीं करता. मेरे बिग फाइव में ये सब से सुलभ और शांत देखे जाने वाले  वन्य जीव हैं.
तेंदुआ.[pantbera pardus] ये तो जंगल का राजकुमार है.चपल और तेज तेंदुआ जंगल से लेकर वन्य गाँव तक तेंदुआ अपनी मौजूदगी बताता  रहता है.छतीसगढ़ के जंगल में इसका देखा जाना कोई अनोखी बात नहीं..!
हाथी [elephas maximus] मान न मान मैं तेरा मेहमान बनकर हाथी 'बिग- फाइव'[बी] का सबसे बड़ा और सुरक्षित जीव बन गया है. मानव और हाथियों का बीच जमीन के लिए जंग छिड़ी हुई है.हाथियों के लिए सेंचुरी बनाई जाना प्रस्तावित है, पर उनको सीमा में बांध पाना संभव नहीं लगता. हाथी और आदमी को साथ रहना सीखना होगा.ये कुदरती प्रक्रिया चल रही है.[फोटो-एक मेरी शेष गूगल ]

Sunday 21 April 2013

न कटे जंगल, यदि वनवासी साथ न दें

जंगल को अपनों की विवशता से खतरा '' 
'शाही आदेश से सूफी फ़क़ीर पत्थर मारे जा रहे रहे थे,फ़क़ीर मौन खड़ा चोटों को झेल रहा था. पत्थर मारने वाली भीड़ में फकीर का चेला भी था, वो डर गया सोचा मैंने पत्थर न मारा तो बादशाह नाराज हो जायगा. तो फिर दिखाने के लिए उसने एक फूल फ़क़ीर को फेंक के मारा. फ़क़ीर दर्द से चीख पड़ा- सजा पूरी होने के बाद चेले ने फ़क़ीर से पूछा, ‘’मैंने तो फूल मारा था, आप चीख पड़े,जहाँ फूल लगा वहां से तो खून निकल आया. ऐसा क्यों ? फ़क़ीर ने कहा, ‘जो मुझे पत्थर मार रहे थे वो नहीं जानते थे की मैं बेगुनाह हूँ ,तू अपना था और जानता था में बेगुनाह हूँ, इसलिए तेरे फूल ने मुझे पत्थर की मार से ज्यादा आघात पंहुचा..!
दंतकथा है-‘बांस ने लोहे का साथ कुल्हाड़ी का दस्ता बनकर दिया और इस वजह जंगल की कटाई शुरू हो सकी ,अकेला लोहा कभी पेड़ न काट सकता.’ तब से बांस पूजित न रहा. पीछे दिनों मैं गहन जंगल में था. मैंने देखा पेड़ों की कटाई के बाद उसके परिवहन के लिए रस्सी का नहीं अपितु उससे मजबूत मोलायाइन डोर [जंगल की बेल जिसके पत्ते का पत्तल-दोना बनता है] का उपयोग किया जा रहा था. सही है जब तक कोई अपना न मिले दुश्मन बाल-बांका नहीं कर सकता.

यदि जंगल में आश्रय पाने वाले अधिकांश आदिवासी जंगल कटाने या लकड़ी निकलने का काम करने में लगे हैं. यदि कटाई कम होगी  तो जंगल की वनोपज उनका सहारा अधिक दिनों तक बनी रहेगी ,ये जंगल के वन्यजीवों के लिए भी लाभदायक होगा. मगर आज रोजगार अवसर जंगल काम हैं,वनवासी दीगर कार्यों में कुशल न होने के कारण वे कटाई जैसे  काम, कम दिहाड़ी पर भी करने  विवश हैं.जब तक ये कुटीर उद्योगों से नहीं जुड़ जाते अवैध जंगल कटाई करने वालों के प्रलोभन में आते रहेंगे .

पलाश की विदाई

     पलाश की विदाई

                                        ''चार दिन वसंत के हम जिए ,
                                        जंगल की आग बनकर ,
                                        आज गिरे हैं उसी जंगल में ,
                                        जमीं की धूल बन कर !!

जंगल को विदेशी मूल की वनस्पति से खतरा


 घाटी की जैव विविधता पर लैंटाना और गाजर घास का हमला..
तपोभूमि अमरकंटक न केवल नर्मदा ,शोण,जुहिला नदी की उदगम स्थली ही नहीं है,अपितु प्रकृति की दुर्लभ जड़ी-बूटियों व जीव-जन्तुओ की शरण स्थली भी है.इसकी प्रचुरता को देखते हुए इस घाटी को अचानकमार-अमरकंटक बयोसिफयर घोषित किया गया है.लेकिन इसकी विविधता पर विदेशी मूल की दो वनस्पति संकट बन उभरी हैं.
इस घोर जंगली इलाके में कुछ ही सालों में गाजर घास और लैंटाना ने जिस प्रकार कब्ज़ा बढाया है,उससे दुर्लभ वनोषधियों के खात्मे का खतरा बना है..इस इलाके में कालीहल्दी, मुसली,बरहमी,जंगली प्याज़,वायविडंग,बछ,गुडमार,शंखपुष्पी,तिखुर,सी बनस्पति इनकी चपेट में आ गई है, जहाँ इनको फैलना था वहां गाजर- घास और लैंटाना पसर गया है. नदी,नालों व तराई में मीलों दूर तक वर्षाकाल में इसका फैलाव हो गया था. आने वाले हर साल गुणात्मक बढेगा. जिससे वन्यजीवों को मिलने वाला चारा कम होता जायेगा .
इन वनस्पति दैत्य के फैलाव को रोकने इस इलाके में कोई काम होते नही दिख रहा  है. देश के इस २६१०  वर्ग किमी के बयोसिफयर को 'यूनेस्को' से इस साल मान्यता मिली है, किन्तु गाजर घांस और लैंटाना का उन्मूलन न हुआ तो यहाँ की जैव विविधता तेजी से ख़त्म हो जाएगी.

कागज के बाघ टाइगर रिजर्व में नहीं दिखते


कागज में बाघ .. अचानकमार टाइगर रिजर्व [बिलासपुर छत्तीसगढ़ ] में कागज के बाघ है.इस सेंचुरी में शेरदिल अधिकारी ऍम आर ठाकरे पदस्थ रहे..सन१९८५ की बात होगी, तब बाघों की कोई वैज्ञानिक गिनती न होती थी. वे पत्रकारों के मित्र थे. हम सब जंगल में डेरा डाले रहते. हर साल मार्च से पहले वे पूछते पिछले साल १४ बाघ थे २-३ और हो गये होंगे, १७ लिख के भेज देते हैं. हम हाँ कहते..उनकी मंशा थी की जादा बाघ बताये तो अचानकमार जल्दी टाइगर रिजर्व बनेगा. गिनती कुछ साल में २७ जा पहुची ..१९९५ मैं म.प्र. वाइल्ड लाइफ बोर्ड का मेंबर बना. तो पूरा मसोदा बना के बोर्ड के समाने पेश किया..अगली बैठक में जानकारी दी गई कि  ५५२ वर्ग किमी के जंगल में इतने बाघ पहले से हैं .. इसलिए टाइगर रिजर्व की कोई आवश्यकता नही है ... फिर कोई यहाँ बाघ कम बताया तो बात नौकरी पर  आ जाती .. वैसे ताजा गिनती में बाघ कम आ रहे हैं..फिर भी कागजों में बाघ कुछ अधिक बचे हैं .माना जा रहा है की पांच से सात बाघ शेष हैं ..अब ये टाइगर रिजर्व बन गया है .अब इस रिजर्व से गांवों को हटाने का काम चल रहा है,पहली खेप के बाद दूसरी खेप के गांवों को हटाया जा रहा है.
इस टाइगर रिजर्व के सीने से बिलासपुर - अमरकंटक सड़क गुजरती है. छत्तीसगढ़ वन्य जीव बोर्ड की बैठक में या तय किया गया था की चरण वार इस सड़क का यातायात रोक दिया जायगा जिस से वन जीवों को खलल  कम हो जाये पर तीन साल में रात को ट्रक की आवाजाही  ही रुक सकी है . उधर सालों के लंबित वैकल्पिक मार्ग भी आधा अधूरा बन सका है.वन्य जीवों के लिए प्राथमिकता दोयम दर्जे पर चल रही है. ये दशा टाइगर रिजर्व के स्वास्थ के लिए अच्छी नहीं है. अगर कागजों में दर्ज बाघों की संख्या को सही करना है तो गांवों को इसकी सीमा से बाहर करने में और देर नहीं होनी चाहिए. बचे गाँव वाले जाने को आतुर हैं ,पर सरकारी लालफीता शाही के चलते काम की गति अपेक्षित नहीं है.
एक जोक-
अचानकमार टाइगर रिजर्व में बड़ी मुश्किल बाघ दिखता है - एक विदेशी पहुंचा, जंगल में जिप्सी गई थी की भाग्य से बेरियर के आगे ही बाघ दिख गया . सैलानी ने कैमरे से खूब फिल्म बनाई . फिर गाइड से पूछा-
''कितना टाइगर है यहाँ, गाइड ने कहा 27 ..! विदेशी बोला एक का  फोटो हो गया ,चलो बाकी 26 दिखाओ ..!
 [फोटो गूगल से कार्बेट पार्क की साभार ली गई है]

शानदार परिंदा धनेश खतरे में

 साल के घने जंगल में  बड़े धनेश [malabar pied hornbill] का तो क्या कहना. जोड़े मैं रहने वाला ये बड़ा पक्षी है.. पर्वत की घाटी में एक के पीछे दूसरा नीचे की ओर जब उड़न भरते हैं ,तो जंगल की शोभा देखते बनती है.धनेश की और प्रजाति भी हैं ..पर काले रंग के इस बड़े धनेश की तो शान ही निराली है..
मैंने वर्षो पहले इसको जोड़े मैं अमरकंटक की कबीर घाटी उड़न भरते देखा. बांधवगढ़, कान्हा में भी देखा है .पर तेजी से ये लुप्त हो रहा पक्षी है.. मादा धनेश बड़े पेड़ के कोटर में अंडे देती है, कोटर को बंद कर दिया जाता है,बस इतनी जगह खुली रहती है जहाँ से नर मादा को फल और कीड़े खाने के लिए दे सके.ऐसा परजीवियों से बचने के लिए किया जाता है.. बच्चे बड़े होने लगते हैं तो कोटर में जगह कम हो जाती है..तब कोटर को चोंच से खोल दिया जाता है.. इस दौरान नर की भूमिका अहम् रहती है.इस बीच नर पक्षी मारा गया तो मादा भी मर जाती है.
घने जंगल का ये शानदार पक्षी, अपनी विशिष्ट उड़ान, सुन्दर काला- सफेद रंग , और दोहरी बड़ी चोंच दिखने  के कारण एक बार देखने के बाद जीवन भर नहीं बुलाया जा सकता.जंगल में कटाई के कारण पुराने बड़े पेड़ खात्मे की और हैं , जाहिर है जब ये पुराने पेड़ न होंगे तो कोटर भी न होगे तो भला धनेश कैसे वंश वृद्धि करेगा ,लिहाजा अब वो समय आ गया की पुराने पेड़ों को बचाया जाये तभी इस शानदार जीव की रक्षा होगी ..![फोटो-गूगल से साभार ली गई है]

छपरवा डाक बंगले में गोपाल शुक्ला ने पत्नी और बच्चों को फूंका


''अचानकमार टाइगर रिजर्व में गोपाल शुक्ल ने परिवार को फूंका'..

मैं गोपाल शुक्ला को कभी नहीं भूल सकता, सीएमडी कालेज में उसकी तूती बोलती,पढ़ने में उसका कोई सानी नहीं था.पर कोई नहीं जनता था कि  इस प्रतिभा का अंत अपनी पत्नी रानी और दो बच्चो को छापरवा के इस डाक बंगले में जला देने के बाद खुद जेल में जल कर आत्महत्या से होगा.ये डाक बंगला अभिशप्त माना जाने लगा ..!
गोपाल की बहन रेखा मेरे भाई प्रताप को राखी बंधतती  थी.सन १९७३ के आसपास छात्र आदोलन में हम कुछ छात्र जेल दाखिल थे. गोपाल और मैं यहाँ करीबी दोस्त हो गये..गोपाल ने कुछ कविता भी यहाँ लिखी.गोपाल का विवाह जगदलपुर में हो गया..! वो बैंक में अधिकारी बन गया..लगता सब ठीक है.
मैं पत्रकरिता में आ गया.नवभारत के बिलासपुर संस्करण में विनोद माहेश्वरी जी ने मुझे समन्वयक का पदभार सौंपा..! हम कुछ पत्रकार मित्र पीआरओ रविन्द्र पण्डया के साथ टूर पर गए थे .वापसी पर अचानकमार डाक बंगले में रात विश्राम तय था.पर शाम जब हम छपरवा पहुंचे तो चौक पर जीप रुकी तो मैंने देखा गोपाल इस डाक बंगले में परिवार के साथ था. मैं मिलने गया तो वो नाराज था.कह रहा था-अचानकमार डाक बंगले में उसका रात गुजरना तय था, पर पत्रकारों के कारण उसे छपरवा आना पड़ा.मैंने बात सँभालते कहा- गोपाल यहाँ की सुबह सुंदर होती है, चिड़िया का गाना सुनना..तभी पेट्रोल जेरिकेन में देख पूछ ये क्यों ? गोपाल ने कहा ''जीप जंगल विभाग की मिल जाएगी..मैं इसे भर कर जंगल घुमूँगा .हम पत्रकारों का दल अचानकमार डाक बंगले पहुंचा तो मैंने अपने मित्र अनिल पाण्डेय,हबीबखान,नथमल शर्मा से अनुमति ली कि  मैं  बिलासपुर घर जाना चाहता हूँ.
मैं किसी लिफ्ट की प्रतीक्षा में बेरियर पर आ गया.तभी मेजबान खोखर साहब बिलासपुर से पहुंचे , तो फिर उनके अनुरोध पर मैं वापस आ गया .रात रुकने की जगह कम थी,इसलिए  ये तय किया मैं और खोखर साहब सोने के लिए छपरवा डाक बंगले  चले जायेंगे.मगर  इस रात एक हादसे में मेरा हाथ टूट गया.अनिल पाण्डेय के साथ मैं  बिलासपुर इलाज के लिए आ गया.
सुबह खबर मिली की गोपाल शुक्ला ने अपनी पत्नी रानी और दोनों बच्चों को जला कर मार डाला है. मुझे बेहद अफसोस हुआ, पर यदि मैं  रात छपरवा रुका होता तो गोपाल दरवाजा बाहर से बंद कर हमें भी बचे पेट्रोल से  जला देता,जिससे  कोई सक्ष्य न बाकी रहे. ये रहस्य बना रहा कि गोपाल ने परिवार को क्यों जला दिया.
      विचाराधीन कैदी के रूप में गोपाल जिला जेल में कुछ माह बंद  रहा.फिर एक दिन खबर मिली गोपाल शुक्ला ने आग लगा ली है ,मैं जिला अस्पताल पहुंचा मेरी आवाज गोपाल पहचान गया ,झुलसने के कारण पलके चिपक चुकी थी..मैंने गोपाल से कहा- तू ज्यादा नहीं  जला है, तू बच जायेगा''..गोपाल बोला,जिनके लिए जीता था ,वो ही नहीं रहे, तो मैं क्या करूंगा जी कर..और कुछ देर बाद वो अपने परिवार से 


मिलने सदा के लिए ये लोक छोड़ कर चला गया .इसके साथ ही एक प्रतिभा का अंत हो गया.
इस हादसे के बाद छापरवा के डाक बंगले में रात विश्राम के लिए कोई न ठहरता ,पुरा वेत्ता राहुल सिंह इसके बाद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने रात वहाँ विश्राम किया. रंग पेंट के बाद भी टाइगर रिजर्व का ये डाक बंगाल अभिशप्त माना जाता है ,,!

Saturday 20 April 2013

इनके बच्चे बूढ़े माँ बाप को क्यों नहीं छोड़ते

छतीसगढ़ और मध्यप्रदेश के घने जंगल में सदियों से रहने वाले बैगा आदिवासी सही अर्थों में वनपुत्र है,मीलों दूर जंगल में सफ़र तय कर अचानकमार टाइगर रिजर्व के गाँव छपरावा  के हाट-बाजार में बैगा महिला  अपने मासूम बच्चे को बांधे पहुंचती  हैं .जिनके बच्चों ने अपनी माँ की गोद में बंधे जीवन का पाठ शुरू किया हो,.उसने देखा हो कितने अभाव के बीच माँ के दूध के बल पर उसने पग-पग चलाना सीखा,ऋतुओं के प्रकोप से माँ ने किस प्रकार सुरक्षा की ,वो बालक क्या बड़ा होने पर अपनी माँ को क्या जीवन की संध्या में अकेला छोड़ेगा ..! कदापि नहीं .. !

अभाव में बैगा

अभाव में जीते बैगा बस्ती, कुछ घर जहाँ न बिजली है न पेयजल की कोई सुविधा ,कृषि युग के आसपास सभ्यता का पड़ाव डाले गावं लमनी का ये हिस्सा ,ये बैगा बाहुल्य गाँव है, बैगा अत्यंत पिछड़ी जनजाति है इसके विकास की लिए परियोजना चलाई जा रही है ,पर बैगा अभी समाज की मुख्य धारा से नहीं जुड़ सके हैं.

महुआ जीवन का आधार

 महुआ जंगल के आदिवासियों की जीविका का आधार है.,फूलों से मदिरा और फल से तेल प्राप्त होता है. गाँव की गाय महुआ न खा जाये इस लिए महुआ बीनने आदिवासी महिलाएं तड़के जंगल की और रुख करती हैं.दोपहर का भोजन जंगल में होता है, साथ बहादुर कुत्ता होता भी होता है, जो भालू से भी लड़ के अपने मालिक की जान बचाने का माद्दा रखता है..!

अचानकमार में साल का जंगल

                                                वसंत को पत्ते दान में दिए ,पर दिया दान व्यर्थ नहीं गया नए पत्ते बदले में साल को मिले साल (सरई) के पेड़ सदाबाहर होते हैं. इनमें पतझड़ कब आया ये पता भी नहीं लगता.अचानकमार के जंगल में साल के इन्ही पेड़ो के नीचे बाघ,तेंदुए ,बाईसन ,साम्भर ,चीतल से खरगोश तक इसके घने वितान के नीचे आश्रय पाते है. 
साल के प्राकृतिक तौर से ही उगते हैं. नर्सरी लगा कर इनके पौधरोपण की योजना कारगर नहीं हो सकी है,इसके जंगल की ठंडक कुछ आधिक होती है, शरद ऋतु से पूरी ठंड तक इसके पेड़ों के रात टप-टप पानी टपकता है. कहा जाता है,साल का पेड़ सौ साल में खड़ा होता है.फिर सौ साल तक खड़ा रहता है और फिर काटने के बाद इसकी लकड़ी सौ साल तक पानी में भी नहीं सड़ती .मजबूत ये इतनी की पहले लकड़ी के स्लीपर रेलवे इसका ही बनती.आज भी नाव के लिए साल की लकड़ी प्रयुक्त होती है,,! साल के घने वन में नीचे धूप भी कम पहुँचती है. बाघ के लिए ये पसंदीदा जंगल हैं ,,कान्हा तथा बांधवगढ़ नेशनल पार्क में भी साल के सुंदर पेड़ो की शान देखते बनती है,.

बाघ-तेदुआ खलनायक और शिकारी नायक था



कभी बाघ -तेंदुए खलनायक थे और शिकारी नायक ,पर आज इस भूल को प्रायश्चित करने का दौर है.
शिकार और शिकारी दोनों कम चालक न होते ,विशेषकर बाघ -
बाघ का शिकार -
घने जंगल का राजा -चपल शिकारी का शिकार आसन न होता. पर शिकारी के पास मारक बंदूक होती . 'गारा[पडवा] किसी ऐसी जगह बाँधा जाता जहाँ, बाघ के आने जाने की संभावित रह  हो ,इसके लिए पहले बाघ के पद चिन्ह खोजे जाते .शिकारी वहां के जानकार गाँव वालों से ये काम करता . फिर मजबूत पेड़ पर मचान बनाया जाता.रात शिकारियों  को मचान पर छोड़कर गाँव वाले वापस चले  जाते . दम साधे मचान पर एक से तीन शिकारी बैठ कर बाघ का इन्तेजार करते .. जानवरों के गले में बंधे जाने वाली घंटी शिकारी आपने पास रखे होते,जिस वो रह-रह कर बजाते. घंटी की आवाज सुन कार बाघ धोखा खाता की कोई मवेशी बिछड़ के जंगल में रहा गया है. और बाघ पडावे को मारने पहुँच जाता . बस मचान पर बैठे शिकारी पडावे  को मारने के बाद या पहले ही मौका देख गोली मार देते. एक के बाद दूसरा शिकारी तुरंत गोली दागता ताकि पहले की गोली सही जगह पर न लगी हो तो उसकी गोली लगा जाये , जंगल का राजा इस प्रकार कायरता से मारा जाता ,पर यदि वो घायल हुआ तो कुछ लम्हों में वो मचान पर झपट्टा मार शिकारी को खींच की कोशिश करता,कभी वो सफल भी हो जाता ..मगर ये कम ही होता.
 बाघ अगर घायल हो जंगल निकल जाये तो ऐसी दशा में शिकारी सुबह दल-बल उस स्थान पहुंचाते फिर जहाँ घायल बाघ का खून गिरा मिलाता वहां से आगे बढ़ते उसे खोज लेते.
 बाघ मरने की पुष्टि पत्थर मार कर की जाती ,यदि कोई हलचल दिखी तो एक गोली और मार दी जाती. बिलासपुर के दो इंग्लो मित्रों के साथ कुछ यूँ हुआ ,घायल बाघ ने उठ के एक को दबोच लिया,दोनों गुथमगुथा हो गये तब दूसरे शिकारी मित्र ने बाघ को बिलकुल करीब से गोली मार दोस्त की जान बचाई .ये करीब पचास साल पहले की बात है..दोनों दोस्त रेलवे में काम करते थे .
यदि पडावे को खाने बाघ के बजाय तेंदुआ पहुंचा तो वो भी शिकारी के कायराना हरकत में मारा जाता. गोली की आवाज सुन गाँव वाले आ जाते ,फिर शिकारी उनके लिए अगले दिन जंगली सूअर या हिरण मार कार देते .
शिकारियों का साथ गांववाले पैसे ,शराब के लिए देते ये भी हो सकता है कि बाघ या तेंदुए उनके मवेशी मार देते इसलिए वो शिकारियों को बाघ की खबर देते ..!
 यदि गाँव वालों को पता लगता की बाघ कहाँ है तो वो बीस-तीस की संख्या में मिल कर उसे हांकते और दूसरी तरफ छिपे शिकारी की और बाघ को पहुँच देते ,हांका दिन को होता ,ये हांकने वाले के लिए कम खतरनाक  न होता ,बाघ नाराज होकर उनपर भी टूट सकता था  या  फिर शिकारी की दागी गोली हांकने वालों में किसी को लगने की आशंका होती ..! पर इससे शिकारी को क्या उसका मकसद तो बाघ का शिकार होता था .