Monday 21 October 2013

जंगल की बदलती तस्वीर





जमीन,जंगल,जल,जमीर से जुड़े छतीसगढ़ के वन में बसने वाले आदिवासियों के जीवन में परवर्तन का दौर जारी है. उनके रहन-सहन में बदलाव आ रहा है, सस्ते आनाज की योजना के इनको लाभ मिल रहा है. पहले नदी नालों का पानी का वे सेवन करते थे,फिर कुआँ खुदे और आज हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं, कुआं बंद होते जा रहे हैं.झोपडी,मिट्टी के मकान बाद ईट के मकान में तब्दील होने लगी हैं.

परम्परागत बेवर खेती [शिफ्टिंग कल्टीवेशन] की परम्परा ख़त्म हो गई है, मगर नई पीढ़ी के आने के साथ परिवार तो बाधा पर सिंचाई के रकबा कम बढ़ा, आज वनवासी बरसात में धान, मक्का की फसल के आलावा सब्जियों को भी उगाना सीख गए हैं, साल के जंगल में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है और खून शीत गिरती है इस वजह वो शीत से सिंचित भूमि में गेहूं के अलावा सरसों की फसल खूब लेते हैं. सरसों के पीले फूलों से पंजाब का नजारा दिखने लगता है. 

 आखेट युग से वो उबार गए है, वो जानते हैं कि, वन्यजीवों का शिकार  अपराध होता है. मैंने देखा कभी वो शहरी को देख कर अज्ञात भयवश छिप जाते थे. पर आज वैसा नहीं, जंगल बचाने में बालिका और लड़कियां भी शामिल है, एक अक्तूबर को अचानकमार-से कान्हा के लिए कारीडोर बनाने के चल रहे प्रयास के दौरान पदयात्रा में वन्यजीव बचाने में लगी मीतू गुप्ता, ने अपनी मितानी से परिचय कराया. शहरियों से मिलाने अब कोई खौफ उनमें नहीं.,  उनके गीतों में जंगल,जल,जमीन का गुंथन होते जा रहा है,जिसे वो सदियों से जुड़े हुए हैं.

जहाँ स्कूल दूर है छात्राएं साइकिल से जत्थे में स्कूल जाती दिखती है. जंगल के गाँव में कवरेज न हो पर मोबाइल फोन पहुँच गया है. उनको पता है कि किस पहाड़ी या कौन से पेड़ के पास से मोबाइल का कवरेज शुरू होता है. नम्बर वो फ़ास्ट डायलिंग में रखे होते है, उन्हें ज्यादा नम्बर दूजों के चाहिए भी नहीं. पर अब वो दुनिया से कटे नहीं रहना चाहते हैं.

कभी वो दिन थे की जिस गाँव्  के पास से जंगल में सड़क बनती वहां से आदिवासी अपना घर दूर कर लेते, सड़क से शहरी आते और वो इनसे दूर में ही भलाई मानते, इस सड़क से जो आते वो बुरी नज़र वाले भी होते,उनकी बहू-बेटी असुरक्षित होती और उनके मुर्गे भी ये शहरी का जाते. बदलाव के इस दौर  में आज वनविभाग के अधिकारी भी मानते है कि, वनवासियों से जंगल में काम लेने का पुराना दबाव वो  वाला तरीका बेकाम हो गया है. उनके बदन गोदान कम हो गया है और परिधान में साड़ी-सूट सलवार,जींस सब शुमार हो गया है. पर हाट-बाज़ार आज भी रौनक लिए हैं. जहाँ गाँव तक बिजली नहीं वहां ‘क्रेडा’ का काम और बढ़ाना होगा..!


चिकित्सा सेवा, की जंगल के इलाके में बेहद कमी है, मोबाईल का कवरेज नहीं होने के कारण संजीवनी 108 को फोन भी नही किया जा सकता. आदिवासी अब मात्र वोट बैंक नहीं. वो मौन है पर भीतर मुखर है.सब जानकर भी अनजान, साधन की कमी है.वे भोले हैं पर बेवकूफ नहीं.परम्पराओं और संस्कारों से वो परिपूर्ण है, वो जाग चुके है सदियों से सोये थे उनको उनके सारे अधिकारों को देने में देर न हो ..!

Saturday 19 October 2013

अचानकमार टायगर रिजर्व में उहापोह का दौर ..




अचानकमार टायगर रिजर्व छतीसगढ़ का वो जंगल है जहाँ सबसे अधिक बाघ होने का दावा किया जाता है.बस्तर के इन्द्रावती नॅशनल पार्क में बाघों की गणना नक्सली समस्या के कारण संभव नहीं,दावा है कि अचानकमार टायगर रिजर्व में तेरह बाघ हैं,यहाँ बसे बाईस गावों के विस्थापन का काम पीछे पांच साल से किस्तों में चल रहा है.बिलासपुर से अमरकंटक जाने वाली सड़क इसके सीने से गुजरती है,वैकल्पित मार्ग रतनपुर से केवंची,पेंड्रा तक बन गया है पर घाट का कुछ मार्ग रुका है.वो शुरू होगा तो वन्यजीवों को कोलाहल से भी राहत मिलेगी..!

इस नेशनल पार्क की विडम्बना है की कोर एरिया में बसे गांवों में धान की खेती होती है,भुट्टे की खेती के बाद गाँव वाले शीतकालीन सरसों की खेती के लिए भूमि तैयार कर रहे है,खेतों में नागर चल रहे हैं.बैगा आदिवासी यहाँ बसते हैं,दिल्ली के प्रो.डाक्टर खेड़ा बैगा जनजाति के हित में बीते ढाई दशक से लमनी में रहते है वो छापरवा गाँव में बच्चों को पढ़ाने रोज जाते है.. अस्सी फीसद बच्चे बारहवीं में उनके पढ़ाये पास हो गए है,जीवन के अस्सी वसंत देख चुके प्रो.खेड़ा को चिंता है की अब इन बैगा बच्चों को रोजागार सरकार उपलब्ध कराए..! 


बैग अत्यन्य पिछड़ी जनजाति है,कुछ पशुपालन और खेती करना जान गए है,इनकी महिलाओं को गोदना,मोती की माला का खूब शौक है,कौड़ी से श्रृंगार इनको प्रिय है.टायगर रिजर्व होने के बाद विकास के कामों में मंदी हो चुकी है.जिसका असर इस इलाके के वनवासियों पर पड़ने लगा है. पर एक दिन तो इनको अपनी जमीन वन्यजीवों के लिए छोड़कर जाना है.पर सरकारी काम है समय की सीमा तय नहीं है.जिस वजह यहाँ के रहवासी उहापोह में है कि उनका भविष्य आखिर कब तक अधर में लटके रहेगा. अब वो वक्त आ गया है की सरकार मिलजुल कर वन्यजीवों और वनवासियों के हितार्थ कदम उठने में देर न करे.  

Friday 4 October 2013

बाघों को बचाने अचानकमार,कान्हा कारीडोर की पदयात्रा..



वन्यजीवों के संरक्षण की एक नई सम्भावनों का एक नया दरवाजा खोलने की कोशिश अचानकमार-और कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के कारीडोर के रूप में की जा रही है, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के दवारा इस पर काम किया जा रहा है और 84 किमी के इस दुर्गम राह पर वन्यप्राणी संरक्षण सप्ताह के अवसर पर इस राह में पदयात्रा की जा रही है,आम तौर पर वन्यप्राणी सप्ताह किसी होटल के ऐसी सभागार में आयोजित होता रहा, पर अब ये जंगल में पदयात्रा कर जमीनी और कारगर काम किया जा रहा है. यदि ये कारीडोर घने जंगल के रूप में विकसित हो गया तो दोनों पार्क के वन्यजीव एक से दूसरे पार्क में आने-जाने लगेंगे और उनमें इन ब्रीडिंग का आसन्न खतरा कभी हद तक ख़त्म हो जायेगा..!

अब ये किसी से छिपा नहीं कि जंगल में वन्यजीवों को कमी होती जा रही है, जिस कारण करीबी रक्त संबंधितों के आपस में संतान पैदा करने की दशा निर्मित हो रही है, जिस वजह हर नई पीढ़ी अनुवांशिक दोष ले कर जन्म लेती है, इसके निराकरण के लिए नर-मादा के निकट रक्त सम्बन्धित न होना जरूरी हो चुका है. अचानकमार-कान्हा के बीच आदिम गलियारा था,पर बसाहट और पेड़ों की कटाई की वजह इसका स्वरूप पहले सा नहीं रहा है. खुडिया से शुरू हुई पदयात्रा सलगी,पंडारापानी,सिन्दूरखार,पंडरीपानी,दलदली,देवगांव,के बाद बैला गाँव में सम्पन्न आठ दिन में पूरी होगी.

पदयात्रा का प्रांरम्भ बिलासपुर के सीएफ ओपी यादव ने हरी झंडी दिखा के किया,इसअवसर पर डीएफओ हेमंत पांडे,डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के डा.चितरंजन दवे,उपेन्द्र दुबे,सुजीत सोनवानी,के अलावा,मीतूगुप्ता,विक्रमधर दीवान,सौरभ पहाड़ी, बंशीलाल गौरहा,और दीगर प्रान्तों से आये वन्यजीव प्रेमी भी थे. सभी दुर्गम पहाड़ी राह से पहले दिन कोई नौ किमी दूर बीजकछार तक जब पहुंचे तब वनवासियों ने परम्परागत नृत्य से सबका स्वागत किया. पद्यात्रियों को विदाई दे कर अधिकारी और पत्रकार संध्या वापस लौट आये..काफिला अगले दिन इस पड़ाव से आगे बढ़ गया..!

क्या होना चाहिए...

जहाँ जंगल विरल है और गाँव अधिक, वहां इस कारीडोर के गाँव हटाकर, पेड़ लगाये जाएँ ताकि दोनों वन जुड़ इस सघन हो और गलियारे वन्यजीवों  की आवाजाही हो..इसके लिए छतीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सरकार को साथ काम करने की जरूरत है..!
एक खतरा भी—

अगर अचानकमार में सींग वाले वन्य जीवों की संख्या नहीं बढ़ी तो यहाँ के बाघ कान्हा न चले जाएँ..!  

Thursday 3 October 2013

वन्यजीव संबन्धित कानून का प्रचार जरूरी


वन्यजीवों के हितार्थ 1972 का कानून अभी जमीनी स्तर तक नहीं पहुंचा है, न तो इसके बारे में  जंगल के अदना कर्मी ही भली-भांति जानते हैं और न ही अपराधी की वो अपराध कर रहे हैं। वन्य जीवों को बचाने और अचानकमार-कान्हा के कारीडोर की पदयात्रा की शुरुवात वन्य प्राणी सप्ताह मे अभी खुड़िया से शुरू हुई थी कि एक ऐसा वाक़या दरपेश आया।

वर्षा के कारण खुड़िया बांध के निचले इलाके में उगे खरपतवार में एक संवारा जाति का व्यक्ति अपने शागिर्द को कोबरा सर्प की जहर ग्रंथि निकालने का हुनर सीखते दिखा, डब्लूडब्लूएफ द्वारा आयोजित इस पदयात्रा में वनविभाग के अधिकारी और कर्मचारी शरीक भीथे। आधिकारी आगे थे और बाकी कुछ पीछे, जिनमे वन्यजीव प्रेमी फोटोग्राफर के अलावा कुछ छोटे वन कर्मी शामिल थे। उत्सुकतावश कुछ लोग फोटो के लिए उस तक पहुंचे। वो कपड़े की रस्सी को कोबारा के मुंह मे डाल कर एक लकड़ी से इस तरह बना लिया था, जिसे साँप विवश हो उसके इस आपरेशन टेबल पर था। फिर ब्लेड से उसके जहर की ग्रंथि काट कर निकाली,खून बह रहा था,और दांत भी तोड़ दिये।

सर्प के साथ ये अत्याचार देख फोटो लेने वाले उबाल पड़े, लेकिन वन कर्मी खामोश थे,शायद उनको पता ही नहीं था की ये सब अपराध है।मगर जब उनको बताया गया, तब वो सक्रिय हुए और पतासाजी की, कुछ और भी सर्प पकड़ने वाले थे, जो ये मजरा देख भाग खड़े हुए। मगर उनके पिटारे में आधा दर्जन साँप वन विभाग के हाथ लग गए। जिनमें दो रेटस्नेक और बाकी कोबरा थे। सावरा परम्परगत सर्प पकड़ते रहे है, इसको ये भी पता नहीं था की जमाना बादल गया है और ये अब अपराध है।

उसे अधिकारियों ने समझाईश दी और सर्प आगे जाकर छुड़वा दिये। सावरा को कुछ मुआवजा भी उन्होने दिया। उसने बताया इस इलाके में बारिश के दिनों काफी सर्प पकड़े जाते हैं, जिनको विक्रय कर वे कुछ कमाई करते हैं। इसके लिए वो कोई चालीस किलोमीटर दूर करगी गाँव से आया था.

क्या कहता है, वन्यजीव बचाने के लिए सन 1972 से प्रभावी कानून ...

धारा 47-[ख] साफ है कि कोई किसी वन्यजीव को नहीं पकड़ेगा, अपने कब्जे में नहीं रखेगा। उसको बेच नहीं सकता,चमड़ा नहीं निकाल सकता,मार या खा नहीं सकता न ही परिवहन कर सकता है। 

Wednesday 2 October 2013

नई पीढ़ी जंगल देखी,समझी



अगर मन  में उत्साह हो तो मौसम की क्या मजाल जो हौंसला कम कर सके, नई पीढ़ी को जंगल से परिचय करने और प्लास्टिक के अवगुणों को बताने वन्य प्राणी सप्ताह पर नेचर क्लब के प्रमुख सदस्य अचानकमार टाइगर रिजर्व अपने साथ ले गए थे. जाती हुई बरसात आज जाम कर बरस रही थी। बस और कारों का काफिला जब बरीघाट पहुंचा तो बादल पर्वत पर छाए थे। लगा हिमाचल की छ्टा यहाँ बिखेर रही है।

अचानकमार के एक हाल में शालेय बालक-बालिकाओं को पार्क के असि. डायरेक्टर श्री चटर्जी,विवेक जोगलेकर,प्रथमेश मिश्रा, ने संबोधित करते हुए जंगल और वन्यजीवों के महत्व को प्रतिपादित किया। कुछ समय बाद रिमझिम फुहारों के बीच सड़क से जत्था बना का जैवविविधता से परिचय का दौर शुरू हुआ। मैकू मठ के उस स्मारक को नयी पीढ़ी ने जिज्ञासा से देखा जहां मेकू गौंड को बाघनी ने अपना शिकार बनाया था और फिर रेंजर खोखर ने उस बाघनी को मचान से गोली मार के मार डाला था। बाद  विंदवाल वनयगांव में सौर ऊर्जा से विद्युतीकरण को भी जत्थे ने देखा,और जनजातीय सभ्यता से अवगत हुए।
 अब शुरू हुआ जत्थे बार कर मानियारी नदी तक पैदल चलने का दौर,कोई तीन किलोमीटर की इस राह में जत्थे के प्रमुखजन नई पीढ़ी की जिज्ञासा से उठे सवालों का जवाब देते चला रहे थे. पूर्व आए सैलानियों के फैके पलास्टिक को भी बांटोरते गए. बिलासपुर के प्रतिष्ठित स्कूल आधारशिला,बाल भारती,सिद्धिविनायक के अलावा कोटा के डीकेपी स्कूल के कोई सौ बालक-बालिका का जंगल के प्रति रुझान देखते बना, मिलों के सफर बाद उनमें थकावट न थी।वन विभाग ने भी इस आयोजन में सक्रिय भागीदारी का निर्वाह किया.

आयोजन को सफल बनाने मे नेचरक्लब के संयोजक मंसूर खान,शैलेश शुक्ला, भारतपाटिल,दिलीप सप्रे,अभिताभ गौर,गौरव मिश्रा,विक्रम धर दीवान और टीचर्स स्टाफ ने अहम भूमिका अदा की।

बफरजोन में लकड़ी कटाई-

वापसी के दौरान सड़क पर एक व्यक्ति पार्क के बफरजोन में लकड़ी काट कर सड़क पर करते दिखा,उसने सराई की बल्ली कटी थी,जब उसे ललकारा गया तो वो लकड़ी छोड़ जंगल मे भाग निकाला॥