अमरकंटक की घाटी में न जाने कौन-कौन सी वनौषधि आज भी अपारिचित हैं. शिवरात्रि के वक्त
जब यहाँ मेला लगता है, तब बैगा आदिवासी मेले में भांति-भांति के जड़ी-बूटी ले कर विक्रय के
लिए पहुँचते है. मैं जब अपने पिताजी के साथ बचपन में अमरकंटक जाता तब इन जड़ी-बूटियों
को हैरत से देखता..वक्त गुजरता गया..! बिलासपुर के माटी पुत्र राजनीतिक और
साहित्यकार श्रीकांत वर्माजी के देहावसान बाद उनकी धर्मपत्नी श्रीमती वीणा वर्मा राज्यसभा
की सदस्य बनी, उन्होंने सांसद निधि को बिलासपुर के विकास कार्यो में लगाना शुरू
किया..बीआर यादव मप्र के वन मंत्री थे..सन 1994-1995 की बात होगी, श्री यादव ने
मुझे कहा-वीणाजी अमरकंटक देखना चाहती है. आप साथ चले जाएँ. बस फिर अगले दिन वीणाजी
मैं और मेरी बेटी प्रिया और रामबाबू सोंथालियाजी का सुपुत्र मोनू कार से निकल
पड़े..!
अमरकंटक की बिलासपुर से दूरी 125 किमी है, ये रास्ता अचानकमार सेंचुरी
[अब टाइगर रिजर्व] से हो कर गुजरता है. श्रीमती
वीणा वर्माजी से मेरा रिश्ता भाई-बहन का है. मैंने बताया कि जिस राह से गुजर रहे
हैं, वो बैगा बाहुल्य हैं, उनकी इच्छा प्रकट की किसी बैगा गाँव को देखा जाये, राह में
लमनी पड़ा, इस गाँव से मैं परिचित था. वहां रुके तो वनकर्मी भी साथ हो लिए, गाँव का
मुखिया हमें गाँव दिखने ले चला. मिट्टी से बने घर, छत खपरों का, बैगा जनजाति
श्रृंगार प्रिय होती है, महिलाओं का गोदना, गले में लाल छोटे मोतियों की ढेर सी
माला, देख वो दंग रह गई. तब बैगा पुरुष भी सिर पर बाल रखते थे. गाँव काफी दूर तक
फैला है.
बैगा जड़ी-बूटी की चिकित्सा का ज्ञान रखते हैं. मैंनें वीणाजी को बताया
कि अमरकंटक की इस घाटी में कभी काली हल्दी मिलती थी पर कभी देखी नहीं है. गाँव का
मुखिया अपने घर ले आया और चारपाई बिछा कर बैठाया, कुछ देर बाद वो कुदाल लाया और
आंगन में केले के पेड़ के नीचे से कोई ‘जड़ी’ खोद लाया..गाढ़ा नीला-काला द्रव उससे
निकल रहा था. अक्टूबर-नवम्बर चल रहा होगा..हल्दी की गांठ बन गई रही..सुंगध से समझ
आ गया कि यही काली हल्दी है.उसके पत्ते सूख चुके थे, मुखिया ने दो गांठ काली हल्दी
की हमें दी, हमने जब पैसा पूछा तो उसने लेने से इंकार कर दिया.
काली हल्दी के गांठ वीणा जी अपने साथ दिल्ली ले
गई, मैंने घर आकर एक में लगा दिया,पहली बरसात के साथ उसके पीके फूट पड़े और हर साल
में उसे बढ़ते गया, आज मेरे घर और फार्म हॉउस में काली हल्दी काफी उगी है. इसके पत्तों
में हल्दी सी खुशबू होती है, पर पत्तों के मध्य काली पट्टी होती है..इसे कृष्णा
हरिद्रा भी कहते हैं, आम हल्दी की भांति से सेवन नही किया जाता, पर बताया जाता है
कि इसमें मजबूत एन्टीबायोटिक गुण होते है. कुछ तंत्र-मन्त्र को मानाने वाले इसे
खोजते मिलते हैं ..! अमरकंटक के पहाड़ों पर ये यदाकदा दिखाती है तो लगता है कि कभी
दुर्लभ काली हल्दी आज लुप्त होने के खतरे में नहीं..!