Friday 28 June 2013

वन्यगाँव में कुपोषण और कमजोर पशुधन



पशुधन विकास के लिए चलाई गई योजना किसी प्रदेश की ग्रामीण आर्थिकी के सफलता असफलता को बताती है, इसलिए ही पशुधन शब्द का उदय हुआ होगा. मैंने ये निरंतर महसूस कर रहा हूँ की छतीसगढ़ के गाँव में पशुधन कमजोर होता जा रहा है, वैसे वो पहले भी कमजोर था. अगर पशुधन कमजोर रहा तो जंगल में आदिवासी- और ग्रामीण बच्चे कुपोषित रहेंगे.

सन 1972 के आसपास कालेज टूर में हम छात्र प्राचार्य रामनारायण शुक्लजी के साथ कश्मीर गए थे, श्रीनगर में आयोजित एक सरकारी प्रदर्शनी के एक स्टाल में बड़ी भीड़ लगी थी, जिज्ञासावश में भीड़ के भीतर गया तो पता चला की शेख अब्दुला साहब, गाय देखने आए हैं, मैं तुरंत वापस लौटा और साथियों से कहा’ चलो इस स्टाल को रहने दो, भरत शर्मा ने पूछा क्या है, मैंने कहा- जर्सी गाय हैं. कश्मीर के किसी विभागीय अधिकारी ने ये सुन लिया, मुझे पूछा आप लोग कहाँ से आए हैं. मैंने कहा- मध्यप्रदेश  के बिलासपुर से, वो बोला तभी कहा रहे हो, ‘जर्सी गाय है’, वो जानता था कि, यहाँ कोनी में जर्सी डेयरी  फार्म है.

मुझे याद है कि मंत्री द्वय अशोकराव और बी.आर यादव के सयुंक्त प्रयासों से  सकरी गाँव में पशुधन मेला आयोजित किया गया था, जहाँ देश भर का उन्नत पशुधन पंहुचा था.  रेमण्ड के श्री विजयपत सिंघानिया ने गोपालनगर में सीमेंट प्लांट की स्थापना के साथ आधुनिक डेयरी की स्थापना की जिसकी  थी, जिसकी देखभाल डा.श्याम झावर करते, यहाँ से गाँव तक पशुधन उन्नत के लिए नेटवर्क बुना गया. जिसका लाभ भी मिला. पर आज गाँव के पशुधन की दशा बड़ी खराब है. लगता है सरकारी कोशिशें दूर   गाँव-जंगल में पहुंचने के पहले दम तोड़ देती है. जंगल में बकरे-बकरी बाँट कर काम चलाया जा रहा,पर ये नाकाफी है, जब तक गाय की नस्ल उन्नत नहीं होती, जंगल से बाल कुपोषण दूर नहीं हो सकता.

 जिले के एक बड़े साहब ने अपने बच्चे की पहली वर्षगांठ मनाई, कुछ पत्रकारों को भी भोज पर आमंत्रित किया गया था. पर उनको भोज का कारण नहीं बताया गया था. भोज कुछ लोगों तक सीमित  था, पर बाकी गिफ्ट में कुछ न कुछ लाए थे, मैं खाली हाथ था, पर कुछ दिन मैंने उनकी श्रीमती जी को एक ‘बैगा माँ’ की फोटो लेमिनेशन करा के भेंट कि जिसमें वो साल भर के पुष्ट बच्चे को बाजू में बंधे दिखाई दे रही थी, उन्होंने मेरी भेंट स्वीकारी और पूछा कि, कौन है ये ? मैनें बताया कि ‘लमनी गाँव की सोन कुंवर है. एक दिन वो लमनी गई और बाद में मुझे बताया कि  सोना कुंवर का बेटा पहले सा तगड़ा नहीं रह गया है. जाहिर था, जब तक माँ का दूध मिला वो तगड़ा था, बाद खुराक की कमी के कारण वो कुपोषित होने लगा. पिछले दिनों में लमनी गया तो पता लगा सोन कुवर गाँव के दूसरे कोने में खेती के कारण रहने चली गई है.

 पशुधन को उन्नत बनाने जो काम किया गया वो अंजोरा और कुछ निजी डेयरी में सिमटा है, ये विकास के टापू हैं और बाकी अभाव का समुंद्र, बुरी दशा दूर जंगल के इलाके में है. यहाँ छोटी देसी गाय चार माह दूध दे तो बड़ी बात. एक लोटे में गाय को दूह लिया जाता है, गर्मी में सूखा और बारिश में फसल के कारण चराई पर रोक, खुद की माली दशा ठीक नहीं, तो भला पशुपालक गाय को भरपेट पौष्टिक दाना कहा से दें.


छोटे-छोटे बैल बारिश के शुरुवाती दिनों में नागर खींचते दिखाई देते हैं. कुछ कमजोरी के कारण खेत में थक कर बैठ जाते हैं. कृत्रिम रेतन का प्रयोग सकारात्मक रहा, पर कागजी आंकड़ों के खेल का अंजाम भी दिख रहा है. दूर वन्यगाँवों  में ये नेटवर्क काम किया हो ये वहां की गाय से नहीं लगता. 
गाँव-गावं में परिवहन के आधुनिक संसाधन आ चुके है. शानदार सफेद बैल और उनकी बैलगाड़ी का युग खत्म हो गया. सरकारी प्रदर्शनी में पशुधन जैसा दिखता है, वैसा गाँव में कहीं नहीं, छतीसगढ़ के गांवों में छोटे-छोटे बैल हैं, कभी बैल किसान के भाई माने जाते पर जोताई-मिसाई के आधुनिक साधनों की वजह उनकी उपयोगिता कम हो गई, कदाचित इसलिए उन पर ध्यान भी कम होता जा रहा है. 

अब तो बस ‘पोरा’ के ‘तिहार’  के पर  दिन पूजा ज़रूर होती है. डेयरी के लिए महाराष्ट्र के बाजार से उन्नत नस्ल की गाय मोल लाई जाती हैं. 15-17 लीटर दूध देने वाली गाय पचास हजार की. गुजरात,हरियाण से गाय की खरीदी होती है,पता चला ही कि पंजाब ने अन्य प्रान्तों को गौ निर्यात पर रोक लगा दी है. यदि वन इलाकों में जन स्वास्थ की ईमानदार कोशिश करनी है और गाँव और जंगल में बच्चों को कुपोषण से बचाना है तो वहाँ हर घर गाय का दूध उपलब्ध हो ये प्रयास जरूरी है..! ‘वरना कुपोषण भारत छोड़ो’ महज नारा बन कर रहे जायेगा.जब गाऊ माँ ही कुपोषित होगी दूध कम दिन व थोड़ा देगी तो वनपुत्रों को कुपोषित होने से भला कैसे बचाया जा सकता है.[फोटो और लेख -प्राण चड्ढा]

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