Saturday 19 April 2014

कुल्लू के बचे पेड़ और मेरी यादें



यादें जवान हो जाती हैं कुल्लू के इन सफ़ेद चमकीले पेड़ों को देख कर,अपने औषधीय गुणों के कारण ये पेड़ अब कम ही बचे हैं, बिलासपुर से कोई अस्सी किमी दूर मनियारी नदी के 'खुडिया बांध' में डाक बंगले के परिसर में उगे ये कुछ पेड़ अपना ध्यान खीचने में समर्थ हैं ,इसकी गोंद की तासीर बड़ी ठंडी होती है,बस यही गुण इस प्रजाति के लिए जान लेवा बना है.राह चलता कोई ग्रामीण टंगिए से वार करता और महँगी गोंद लौटते में पा जाता, बाद ये घायल होता ये पेड़ दम तोड़ देता.. अब अमरकंटक की घाटी में ये पेड़ कम बचे हैं.वो भी दुर्गम इलाके में जहाँ मानव की आवाजाही कम है,

अंग्रेज इसके चमकीले पेड़ को 'लेडी लेग' भी कहते,जब इस डाक बंगले आता हूँ कुछ यादें जवान हो जाती हैं, कैसे इस के जंगल में बरसों पहले सिन्हा साहब ने जान पर खेल मवेशीमार बाघनी को मारा था,चन्देली वाले लाल साहब के साथ मीलों लम्बा प्रवासी बत्तखों का काफिला उड़ाते देखा था,शेर दिल वन अधिकारी एम्.आर ठाकरे साथ तेंदुए के शावकों के साथ मैंने फोटो ली और फिर अगले दिन माँ उनको उठा ले गई, बायसन का बिछड़ा बच्चा चरई के लिए जंगल गई गायों के साथ गाँव में आ गया और रहने लगा,फिर माँ उसे खोज कर आ पहुंची और रोज दूध पिलाने आती.. बाद वो शावक मर गया ..!उसे करीडोंगरी रेस्टहॉउस में रखा गया था.


इन सबके साक्षी ये कुल्लू के पेड़ भी हैं,डाकबंगले के करीब होने से सबकी निगाह में हैं और ये जीवित बचे रहे. पर जंगल में कम ही बचे हैं. सरकार को इस गुणकारी पेड़ को बढ़ाने में कोई प्रोजेक्ट हाथ में लेने की जरूरत है,देर हो चुकी है सरकार और देर न करे ..!

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