Friday 21 June 2013

हरियर छतीसगढ़,गुजरात की भेड़ों का चरागाह




‘’हरियर छत्तीसगढ़ गुजरात की हजारों भेड़ें का चारागाह बना हुआ है, सारे-साल ये भेड़ें मैदानी इलाके में चरती हैं और वर्षा ऋतू में बारिश से जमीन गीली होने और धान फसल  अभियान के लिए किसानों की  खेत जुताई की वजह ये चौमासा बिताने ये ‘रेवड़’ पहाड़ी जंगल की और रुख करते हैं. कोई चार दशक से मैं इनको देख रहा हूँ, जब गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी गुजरत के प्रगति का दावा कहते हैं कि, गीर के जंगल में शेर दिखने के काम महिला गाइड करती हैं, तब मैं सोचता हूँ कि, वो तो ठीक है, पर छतीसगढ़ के बाघ सहित अन्य वन्य जीवों को लिए गुजरात के रेवड़ खतरा क्यों बने हैं. यद्यपि इनमें कुछ रेवड़ राजस्थान के भी हो सकते हैं.

 यायावर जीवन व्यतीत करने वाले ये पशुपालक मुझे जंगल जाते-आते दिख ही जाते हैं, हाल में ही जो झुण्ड देखा वो काफी विशाल था. पच्चीस दे ज्यादा ऊंट, पचास से अधिक बड़े मजबूत और वफादार कुत्ते और दो हजार दे अधिक भेंड़. ऊंट पर अपने बच्चे और कुत्तों के पिल्ले, महिलाएं काले परम्परागत कपड़ों में और पुरुष सफ़ेद कपड़ों में..! ऊंट के ऊपर ही बच्चों और पिल्लों के जो मैत्री बन जाती है, वो आजीवन बरक़रार रहती है..! कुत्ते भेड़ों को हिंसक वन्य जीवों से बचाते है, चोर की क्या मजाल जो रेवड़ के करीब भी पहुँच जाए. पिल्ले भेड़ों का दूध पर पलते हैं, और फिर मानो वे दूध का कर्ज अदा करने उनको चराते हैं, कोई भेड़ रेवड़ से अलग हो जाए तो घेर कर वापस ले आते हैं. भेड़ों के साथ ऊंट मालवाहक का काम करते हैं,बच्चे,बीमार,तम्बू, पिल्ले अथवा भेड़ के मेमने भी ऊंट के ऊपर होदे में सफर करते हैं, भेड़ें नीचे तो ऊंट पेड़ों से चारा पा जाते हैं. जिधर ये काफिला गुजरा सारा चारा सफाचट .

कभी वो दौर था जब खेत में रात भेड़ बैठाने के लिए ये रेवड़ वाले पशुपालक किसानों से पैसा लिए करते थे, किसान भेड़ों के मल-मूत्र को खाद मानते, ये जैविक खाद तबतक प्रचलित रहा, जबतक यूरिया,पोटाश, और सुपरफास्फेट जैसे खाद प्रचलित न थे, मगर आज ये अवधारण बदल चुकी है, अब माना जाता है कि, भेड़ें जो खरपतवार के बीज खाती हैं, वे भी उनके पेट से हो कर खेत में पहुँच कर उग जाता है, जिसे फिर खेतों से इसको  नष्ट करना बड़ी समस्या बन जाता है. इसलिए किसानों की नजर में यह उपयोगिता और भेड़ पलकों को इससे मिलने वाली आय जाती रही.

रेवड़ वालों की आय के स्रोतों में कोई  कमी नहीं, भेड़ का दूध, उससे बना घी, साल में दो बार मिलने वाला बेशकीमती ऊन, उनकी आय का मुख्य स्रोत है. इसके अलावा भेड़ों की बिक्री भी वे करते है, ये सब छतीसगढ़ की हरी-भरी भूमि पर मुफ्त चराई का नतीजा है , बताया जाता है कि, वन विभाग ने चराई शुल्क का प्रावधान है .पर इन भेड़ों की होने वाली बीमारी वन्यजीवों को न हो इस ‘संरक्षण’ के चलते जोर नहीं दिया गया. लेकिन इससे भला क्या होता है. अब ये काम वन विभाग की निचले कर्मियों की ‘सेटिंग’ से हो जाता है. मगर ईमानदार वनकर्मी इनको अपने जंगल में फटकने नहीं देते..! उनका मानना ही कि भेड़ें जिससे चरती है वो फिर नहीं पनपता, क्योंकि वे उनमें नीचे से चरने में सक्षम होती हैं, जिस वजह फिर कांसे फिर नहीं फूटते.

भेड़ पालकों का चराई क्षेत्र में मेलक रेंज के निचला हिस्सा आता है. वैसे ये हर नक्सल प्रभावित इलाके को छोड़ कर पूरे छतीसगढ़ के पहाड़ी और मैदानी इलाके मैं यायावरी जीवन बिताते हैं. उधर मोदीजी जब दिल्ली में गुजरात के समग्र विकास का ढ़ोल पिटते है तब मुझे लगता है कि वे इस यायावरी पशुपालन के युग से अवगत क्या वे नहीं हैं ? क्या रेवड़ ले कर छतीसगढ़ में भटक रहे गुजरात के इनकी प्रगति के बिना गुजरात की समुचित तरक्की मानी जा सकती है. कुछ वापस गुजरात चले जाते हैं तो दूसरे छतीसगढ़ पहुँच जाते हैं, मीलों दूर भटकन का जीवन,दुनिया आगे निकलती जा रही है.
          
 उधर वन विभाग के आलवा ये पुलिस विभाग के निशाने पर भी रहते है, पर पैसे और इनकी लाबी की ऊँची पहुँच इसको बचाए चलती है. इनको ये जानकारी रहती है की कहाँ किस मौसम में पानी मिलेगा और कहाँ चारा, जब संचार के संसाधन न थे तब भी ये रेवड़ वाले एक दूसरे की स्थिति के बारे में जानते थे और ठीक समय पर मिल जाते थे. आज मोबाइल से सम्पर्क का ये काम करते है. कोई पच्चीस साल पहले अचानकमार इंचार्ज एम् आर ठाकरे, पत्रकार अमित मिश्रा और मैं सुदूर गाँव ‘छिरहाता’ जा रहे तब किसी रेवड़ से बिछड़ गई दो भेड़ें रह में मृतप्राय: मिलीं, गाँव में ले जाकर पानी पिलाया तो होश आया. पर ऐसा कम होता है.

मोदी जी, अब ये बदलाव चाहते हैं.

जंगल में भेड़ पालने और यायावरी जीवन व्यतीत करने वाले इस जीवन से मुक्ति चाहते हैं. नर्मदा नदी की उदगम स्थली अमरकंटक में कल्याण सेवा आश्रम ने सन 1998 में विशाल आश्रम स्कूल की स्थापना की, तब ये कच्छ और भुज के ये लोग बाबा कल्याणदास से मिले और कहा- हम चाहते हैं हमारे बच्चे पढ़ लिख कर जीवन बदले, कल्याण बाबा ने उनको हिमाद्री मुनि से मिलाने को कहा कि, वे आश्रम स्कूल का कार्य देखते है. पहले पांच बच्चों ने नर्सरी में प्रवेश लिया फिर कुल चालीस बच्चे इस स्कूल में आ गए, आज सभी ने सीबीएससी के बारहवीं तक पढ़ाई पूरी कर ली हैं, और अब गुजरात में उच्च शिक्षा ले रहे हैं, हिमान्द्री मुनि ने बताया कि पढने के अलावा वे खेल में भी प्रवीण निकले ,पांच छात्र तो नेशनल तक खेल में पहुंचे..! अब कभी बाबा कल्याण दास किसी आयोजन में गुजरात जाते हैं तो युवा हो गए ये छात्र उनसे मिलाने भी पहुँच जाते है.     

1 comment:

  1. इसके साथ छत्‍तीसगढ़ में गुजराती पटेलों का आरा मिल और बीड़ी पत्‍ता व्‍यवसाय में होना क्‍या मात्र संयोग है?

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