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हाथी यदि छत्तीसगढ़ के जंगल को छोड़ कर चले गए तो निश्चित है वो खूब पछताये और ये मान कर कुछ न किया गया तो हाथी प्रभावित इलाके के ग्रामीण कहीं के नहीं रहेगें । कुछ न कर जन-फसल और हाथी द्वारा घर तोड़ने का मुआवजा तो वन विभाग देगा मगर वन में बसे गाँव वालों की नींद-हराम हो जाएगी. सरहदी इलाके से बढ़ते हुए एक हाथी रुद्री-[धमतरी] के इलाके की रेकी कर आया है..हाथी प्रवास और मानव का चल रहे अघोषित युद्ध, छतीसगढ़ से अमरकंटक तक के जंगल में हाथियों की पर्याप्त मौजूदगी पर ब्रिटिश ताज के मानसेवी अधिकारियों के काफी कुछ लिखा है । अंबिकापुर से 73 किमी दूर डीपाडीह ख्यातिलब्ध पुरा स्थल है, यहाँ 7 वी से 10 वी सदी के प्रतिमाओं में कम से कम दो ऐसी प्रतिमा हैं जिसमें शेर के साथ मानव हाथी से भिड़ा है !

वक्त गुजरते गया फिर वो समय भी आया की अविभाजित मध्यप्रदेश के जंगल हाथी नहीं रह गए पर बीती सदी के आखिरी दशक में हाथी पड़ोसी राज्यों से छत्तीसगढ़ आ धमके और जब उनके उपद्रव का पानी सर से ऊपर हो गया तब तेरह हाथियों को सरगुजा में पकड़ कर पालतू बनाया गया, फिर छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के साथ पडोसी राज्यों से हाथी जशपुर,कोरबा और अविभजित सरगुजा जिले में आ पहुंचे , ये संख्या बढ़ती गयी और अब कम होने का नाम नहीं है ,,इसबीच असम की हाथी विशेषज्ञ पार्वती बरुआ की सेवा भी ली गयी पर बात नहीं बनी ,,!
अब तक जो भी प्रयास हाथी जनित समस्या के निराकरण के लिए किये गए मर्ज बढ़ता जा रहा है ,,अब प्रोजेक्ट एलिफेंट भी आ गया है..जो जंगल हाथियों के प्रवासपथ में है उसके नीचे काला सोना याने कोयला दबा है ,,हमें हाथियों के लिए जंगल छोड़ना होगा तो कोयले का मोह भी त्यागना होगा ,,! हमें ये सोचना होगा चीनी मिलों के लिये लगाये गन्ने के खेतों तक हाथी पहुंच गए तो फिर क्या होगा ।।

हाथियों ने बड़ी सोच से  यह जंगल चयन किया है आज प्रदेश की अधिकांश नदियाँ सूख रही है पर इस इलाके में जलप्रपात हो रहा है, जिनमें चनान नदी के "पवई वाटरफाल" भी है। यहां सौ फीट ऊंचाई से पानी की धारा गिर रही है ,ये बलरामपुर से 18 किमी पर है ,,प्रतापपुर भी यहाँ से दूर नहीं जहाँ हाथियों के लम्बे समय तक पड़ाव डाला हुआ था ,,हाथी प्रभावित इलाके में सेमरसोत और तमोरपिंगला संचुरी का जंगल अचानकमार-अमरकंटक बायोस्फियर से कमतर नहीं और हरा चारा खाने वाले वाले वन्यजीव कम हैं ,,हर हाथी को रोज डेढ़ किवंटल हरा चारा और पीने, नहाने को खूब पानी चाहिए ,,जो इस इलाके पर्याप्त है .गाँव इस इलाके में दर्जनों है ओर आबादी भी हजारों है! 

,,जशपुर,कोरबा,रायगढ़,कोरिया, सरगुजा,बलरामपुर के वनवासी हाथियों के खौफ से रतजगा करते है. फसल बरबाद होते देखते है, हाथी उनके मकान को तोड़ कर चावल महुआ खा जाता है ओर पशु या कोई करीब आया तो जान से हाथ धो बैठता है ,,बिजली की फेंसिंग, हल्ला पार्टी मिर्च का धुआं सारे उपाय-टोटके कर लिए पर समस्या यथावत है ,,वन विभाग हर क्षति का मुआवजा दे रहा है.. पर रूपये से भला जिस घर का आदमी गया वो वापस कहाँ आता है ,,।। आज छतीसगढ़ में दो चीनी मिलें शक्कर उत्पदान कर रही हैं, इसके लिए किसान बड़े रकबे में गन्ना लगा रहे हैं,यदि ये हाथी गन्ना के खेतों तक पहुँच गए तो समस्या विकराल हो जाएगी ,,!
ये देखा जा रहा है की आम तौर पर देखा गया है दंतैल नर हाथी आक्रमक होता है,, वो भी अपने मदकाल में इस वक्त उसके कान के पास ग्रंथी से काला द्रव रिस्ता है ,,मदकाल के औऱ भी लक्षण हैं,ये सही अर्थो में उसका प्रजननकाल होता है वो मद हो पचास गुना अधिक आक्रमक हो कर, वो पेड़ों को गिरता है। सारा खेल हारमोंस का है ,,यदि वैज्ञानिक इस काल को शांत करने दवा बना कर डाट करें तो इस अनावश्यक आक्रमक अवधि को कम किया जा सकता है..ये शोध भी जरुरी है जिस स्थान पर हाथी लम्बी अवधि तक रुक रहे हैं, वैसी जगह ओर बनायीं जाए.जिससे हाथियों का निश्चित स्थान पर रोका जाए ,,कुछ उपद्रवी हाथियों को पकड़ कर पालतू बनाया जाए जिनको मौके पर ले जाकर गाँववालों को राहत दी जा सकें,,अब वह समय आ गया है की हर गजदल में रेडियो कालर वाले हाथी हो जिससे गाँव वालों को हाथियों के आगमन की सूचना पहले मिल सके ,,!!
[ फोटो -सौजन्य चन्द्रशेखर तिवारी, डिप्टी डायरेक्टर, प्रोजेक्ट एलिफेंट]