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Thursday, 5 June 2014

साल बीज का रेट बढ़ा, जंगल के लिए घातक



सरकार ने साल- सरई बीज की खरीदी का समर्थन मूल्य पांच रूपये किलो से दस रूपये किलो क़र दिया है,इससे साल [शोरिया रोबस्टा] के बीज जमा करने वाले आदिवासियों को दूना लाभ होगा ,,है न अच्छे दिन आने वाले हैं ..?
लगता है हाँ, बीज जमा करने वाले आदिवासियों के दिन फिर जायेगे .नवभारत में कल प्रकाशित खबर के अनुसार अब इसकी खरीदी कोई भी कर सकता है,,याने और अधिक भाव मिलेगा ..!

पर पर्यावरण के लिए ये बड़ा घातक है..! साल छतीसगढ़ का राजकीय पेड़ है.ये पेड़ न केवल मजबूत होता है अपितु जंगल को सदाबाहर बनाये रखता है..! साल के जंगल और ऊँचे पेड़ो पर कविता लिखी गई हैं ..!
साल का पेड़ सौ साल में तैयार होता है,फिर वो सौ साल खड़ा रहता है,और इसकी इमारती लकड़ी सौ साल तक टिकाऊ रहती है..! इसलिए ये हर दृष्टि से महत्वपूर्ण है..! साल के पेड़ वन्यजीवों को आश्रय देते है और जल संचय करते हैं..! पर अगर इसके बीजों को है बंटोर कर कारखानों का कच्चा माल बना दिया जाये और 'केक; बनकर निर्यात किया जाये तो फिर नये पेड़ कैसे उगेंगे..? इस और सरकार जाना के भी अनजान बनी है..!


सभी जानते है साल के पेड़ों पर गाहे-बगाहे बोरर का हमला होता है और लाखों पेड़ काट दिए जाते है जिससे बोरर का फैलाव पर काबू पाया जाये..छतीसगढ़ राज्य बनाने के पहले बिलासपुर में बीआर यादव के प्रयास से साल अनुसन्धान केंद्र की स्थापना हो सकी थी, इस केंद्र ने पाया की साल के बीज पहली बारिश की फुहार के साथ हवा में उड़ाते हर नीचे गिरते है और उनका अंकुरण अवधि कुछ दिनों की ही होती है ,,इसलिए इनकी नर्सरी तैयार नहीं हो पाती है..! याने ये प्राकृतिक जंगल है और हम इनको नहीं बढ़ा सकते ..! जल स्तर के नीचे जाने के कारण साल के पेड़ सूखन का शिकार हो रहे हैं..!
साल जंगल की ठंडक भी गजब की होती है, मैंने कई बार चांदनी रात में इस पेड़ों से पानी टपकते देखा है ,,मानो कोई बरसात हो रही हो.. वनवासी इससे टपका कहते है. ये जंगल दूर दूर तक फैले है पर इनका वितान झीना होता जा रहा है.! इन दिनों साल के फूल आ चुके है और ये घूम घूम कर हवा के साथ गिरना शुरू हो रहे हैं ! 


हो सकता है कि बीजों के अधिक संग्रहण से कुछ आदिवासियों की ज्यादा पैसा मिले, उद्योगपति चांदी पीटे पर हम प्राकृतिक विरासत का विनाश कर बैठेगे ..!! ये तय है जब 

Thursday, 5 December 2013

बाघ के अलावा बहुत है जंगल में..





कान्हा-बांधवगढ़ या अचानकमार टायगर रिजर्व जब आम सैलानी वन्यजीवों को देखने जाता है, तब एक ही उद्देश्य होता है की, बाघ दिख जाए, बाघ दिखा तो उसका पैसा वसूल और किसी कारण नहीं दिखा तो उसे प्रतीत होता है की जुएँ की बाजी हार गए. जंगल में केवल बाघ ही नहीं और भी वन्यजीव है जो वन पर्यटन के समय दिखाई देते है, अगर उनकी दुनिया को हम गाईड से पूछ कर समझे तो हमारा ज्ञान समृद्ध होगा.. नर बायसन की तैलीय चमक को एक नजर देखो, खुश हो जाओगे, जंगल में चिड़ियों का मीठा बोलना, चीतल की आवाज,साल की हरियाली मन को भा लेती है..! जंगल के जर्रे-जर्रे में आकर्षण है, बस देखने वाला नजरिया चाहिए ..! जब ये नजरिया बन जाता है तो जंगल का सौदर्य दिखने लगता है..!

बाघों की कम होती संख्या और उसको बढ़ाने के लिए ये जरूरी ही की बाघों के नैसर्गिक जीवन में और खलल न पहुंचे,इसलिए कान्हा-बांधवगढ़ जैसे नेशनल पार्क में ‘बाघ दर्शन’ का खिलवाड़ बंद कर दिया गया है. पहले यहाँ बाघ हो खोज कर सैलानियों को हाथी से ले जाकर बाघ दिखाया जाता था. लेकिन अब जिप्सी से जंगल भ्रमण में ही बाघ दिखाया जाता है..! घंटों बाघ घिरा रहता और बाद वो इसका आदी हो जाता,ये उसके स्वभाव के प्रतिकूल था..!

अचानकमार  जैसे टाइगर रिजर्व जहाँ बाघ के दर्शन कम होते हैं, वहां बाघ के बजाय सैलानियों को इको पर्यटन की तरफ केन्द्रित होना जरूरी है..यहाँ बायसन,साम्भर, चीतल देखे जा सकते हैं..वन विभाग ने ऊँची जगह से जंगल की विहगम छवि निहारने टावर बनवाये है..ये फोटोग्राफी के लिए बहुत बढ़िया स्थल है,एक छोटी से आंख की पुतली से 360 अंश पर निहारना क्या एक बाघ देखें जाने से सुखद नहीं..! जो जंगल वन्य जीवो को आश्रय देते है और पृथ्वी पर जिनका वितान छाया है वो कुदरत का अनोखा करिश्मा सुकून देने वाला होता है..!


जंगल में परिंदों के मीठी आवाज सारे दिन ही नही,रात में भी जंगल को जीवित रहती है,’ब्रेनफीवर’ की तो रात-दिन ‘पी कहाँ’ की रट रहती है, मोर की तेज केका ध्वनि. कोयल के सुर, और ‘बर्ड फोटोग्राफी’ का जो मजा है वो अपने में अनोखा है..बाघ दिखा तो कोई बात नहीं, उसकी जिप्सी से फोटो ले, अगर न दिखा तो मायूस न हो. वैसे भी ये मान्यता है कि जंगल में बाघ की धारियां उसे छिपाए रखती है, जिस वजह आप बाघ को एक बार देख पाते हैं  और वो आपको दस बार, इस लिए मानो आपको बाघ न दिखा, पर उसने आपको देख लिया होगा...![पहली फोटो नेट की बाकी मेरी]

Monday, 21 October 2013

जंगल की बदलती तस्वीर





जमीन,जंगल,जल,जमीर से जुड़े छतीसगढ़ के वन में बसने वाले आदिवासियों के जीवन में परवर्तन का दौर जारी है. उनके रहन-सहन में बदलाव आ रहा है, सस्ते आनाज की योजना के इनको लाभ मिल रहा है. पहले नदी नालों का पानी का वे सेवन करते थे,फिर कुआँ खुदे और आज हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं, कुआं बंद होते जा रहे हैं.झोपडी,मिट्टी के मकान बाद ईट के मकान में तब्दील होने लगी हैं.

परम्परागत बेवर खेती [शिफ्टिंग कल्टीवेशन] की परम्परा ख़त्म हो गई है, मगर नई पीढ़ी के आने के साथ परिवार तो बाधा पर सिंचाई के रकबा कम बढ़ा, आज वनवासी बरसात में धान, मक्का की फसल के आलावा सब्जियों को भी उगाना सीख गए हैं, साल के जंगल में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है और खून शीत गिरती है इस वजह वो शीत से सिंचित भूमि में गेहूं के अलावा सरसों की फसल खूब लेते हैं. सरसों के पीले फूलों से पंजाब का नजारा दिखने लगता है. 

 आखेट युग से वो उबार गए है, वो जानते हैं कि, वन्यजीवों का शिकार  अपराध होता है. मैंने देखा कभी वो शहरी को देख कर अज्ञात भयवश छिप जाते थे. पर आज वैसा नहीं, जंगल बचाने में बालिका और लड़कियां भी शामिल है, एक अक्तूबर को अचानकमार-से कान्हा के लिए कारीडोर बनाने के चल रहे प्रयास के दौरान पदयात्रा में वन्यजीव बचाने में लगी मीतू गुप्ता, ने अपनी मितानी से परिचय कराया. शहरियों से मिलाने अब कोई खौफ उनमें नहीं.,  उनके गीतों में जंगल,जल,जमीन का गुंथन होते जा रहा है,जिसे वो सदियों से जुड़े हुए हैं.

जहाँ स्कूल दूर है छात्राएं साइकिल से जत्थे में स्कूल जाती दिखती है. जंगल के गाँव में कवरेज न हो पर मोबाइल फोन पहुँच गया है. उनको पता है कि किस पहाड़ी या कौन से पेड़ के पास से मोबाइल का कवरेज शुरू होता है. नम्बर वो फ़ास्ट डायलिंग में रखे होते है, उन्हें ज्यादा नम्बर दूजों के चाहिए भी नहीं. पर अब वो दुनिया से कटे नहीं रहना चाहते हैं.

कभी वो दिन थे की जिस गाँव्  के पास से जंगल में सड़क बनती वहां से आदिवासी अपना घर दूर कर लेते, सड़क से शहरी आते और वो इनसे दूर में ही भलाई मानते, इस सड़क से जो आते वो बुरी नज़र वाले भी होते,उनकी बहू-बेटी असुरक्षित होती और उनके मुर्गे भी ये शहरी का जाते. बदलाव के इस दौर  में आज वनविभाग के अधिकारी भी मानते है कि, वनवासियों से जंगल में काम लेने का पुराना दबाव वो  वाला तरीका बेकाम हो गया है. उनके बदन गोदान कम हो गया है और परिधान में साड़ी-सूट सलवार,जींस सब शुमार हो गया है. पर हाट-बाज़ार आज भी रौनक लिए हैं. जहाँ गाँव तक बिजली नहीं वहां ‘क्रेडा’ का काम और बढ़ाना होगा..!


चिकित्सा सेवा, की जंगल के इलाके में बेहद कमी है, मोबाईल का कवरेज नहीं होने के कारण संजीवनी 108 को फोन भी नही किया जा सकता. आदिवासी अब मात्र वोट बैंक नहीं. वो मौन है पर भीतर मुखर है.सब जानकर भी अनजान, साधन की कमी है.वे भोले हैं पर बेवकूफ नहीं.परम्पराओं और संस्कारों से वो परिपूर्ण है, वो जाग चुके है सदियों से सोये थे उनको उनके सारे अधिकारों को देने में देर न हो ..!

Sunday, 21 April 2013

न कटे जंगल, यदि वनवासी साथ न दें

जंगल को अपनों की विवशता से खतरा '' 
'शाही आदेश से सूफी फ़क़ीर पत्थर मारे जा रहे रहे थे,फ़क़ीर मौन खड़ा चोटों को झेल रहा था. पत्थर मारने वाली भीड़ में फकीर का चेला भी था, वो डर गया सोचा मैंने पत्थर न मारा तो बादशाह नाराज हो जायगा. तो फिर दिखाने के लिए उसने एक फूल फ़क़ीर को फेंक के मारा. फ़क़ीर दर्द से चीख पड़ा- सजा पूरी होने के बाद चेले ने फ़क़ीर से पूछा, ‘’मैंने तो फूल मारा था, आप चीख पड़े,जहाँ फूल लगा वहां से तो खून निकल आया. ऐसा क्यों ? फ़क़ीर ने कहा, ‘जो मुझे पत्थर मार रहे थे वो नहीं जानते थे की मैं बेगुनाह हूँ ,तू अपना था और जानता था में बेगुनाह हूँ, इसलिए तेरे फूल ने मुझे पत्थर की मार से ज्यादा आघात पंहुचा..!
दंतकथा है-‘बांस ने लोहे का साथ कुल्हाड़ी का दस्ता बनकर दिया और इस वजह जंगल की कटाई शुरू हो सकी ,अकेला लोहा कभी पेड़ न काट सकता.’ तब से बांस पूजित न रहा. पीछे दिनों मैं गहन जंगल में था. मैंने देखा पेड़ों की कटाई के बाद उसके परिवहन के लिए रस्सी का नहीं अपितु उससे मजबूत मोलायाइन डोर [जंगल की बेल जिसके पत्ते का पत्तल-दोना बनता है] का उपयोग किया जा रहा था. सही है जब तक कोई अपना न मिले दुश्मन बाल-बांका नहीं कर सकता.

यदि जंगल में आश्रय पाने वाले अधिकांश आदिवासी जंगल कटाने या लकड़ी निकलने का काम करने में लगे हैं. यदि कटाई कम होगी  तो जंगल की वनोपज उनका सहारा अधिक दिनों तक बनी रहेगी ,ये जंगल के वन्यजीवों के लिए भी लाभदायक होगा. मगर आज रोजगार अवसर जंगल काम हैं,वनवासी दीगर कार्यों में कुशल न होने के कारण वे कटाई जैसे  काम, कम दिहाड़ी पर भी करने  विवश हैं.जब तक ये कुटीर उद्योगों से नहीं जुड़ जाते अवैध जंगल कटाई करने वालों के प्रलोभन में आते रहेंगे .

Saturday, 20 April 2013

महुआ जीवन का आधार

 महुआ जंगल के आदिवासियों की जीविका का आधार है.,फूलों से मदिरा और फल से तेल प्राप्त होता है. गाँव की गाय महुआ न खा जाये इस लिए महुआ बीनने आदिवासी महिलाएं तड़के जंगल की और रुख करती हैं.दोपहर का भोजन जंगल में होता है, साथ बहादुर कुत्ता होता भी होता है, जो भालू से भी लड़ के अपने मालिक की जान बचाने का माद्दा रखता है..!