Sunday 21 April 2013

न कटे जंगल, यदि वनवासी साथ न दें

जंगल को अपनों की विवशता से खतरा '' 
'शाही आदेश से सूफी फ़क़ीर पत्थर मारे जा रहे रहे थे,फ़क़ीर मौन खड़ा चोटों को झेल रहा था. पत्थर मारने वाली भीड़ में फकीर का चेला भी था, वो डर गया सोचा मैंने पत्थर न मारा तो बादशाह नाराज हो जायगा. तो फिर दिखाने के लिए उसने एक फूल फ़क़ीर को फेंक के मारा. फ़क़ीर दर्द से चीख पड़ा- सजा पूरी होने के बाद चेले ने फ़क़ीर से पूछा, ‘’मैंने तो फूल मारा था, आप चीख पड़े,जहाँ फूल लगा वहां से तो खून निकल आया. ऐसा क्यों ? फ़क़ीर ने कहा, ‘जो मुझे पत्थर मार रहे थे वो नहीं जानते थे की मैं बेगुनाह हूँ ,तू अपना था और जानता था में बेगुनाह हूँ, इसलिए तेरे फूल ने मुझे पत्थर की मार से ज्यादा आघात पंहुचा..!
दंतकथा है-‘बांस ने लोहे का साथ कुल्हाड़ी का दस्ता बनकर दिया और इस वजह जंगल की कटाई शुरू हो सकी ,अकेला लोहा कभी पेड़ न काट सकता.’ तब से बांस पूजित न रहा. पीछे दिनों मैं गहन जंगल में था. मैंने देखा पेड़ों की कटाई के बाद उसके परिवहन के लिए रस्सी का नहीं अपितु उससे मजबूत मोलायाइन डोर [जंगल की बेल जिसके पत्ते का पत्तल-दोना बनता है] का उपयोग किया जा रहा था. सही है जब तक कोई अपना न मिले दुश्मन बाल-बांका नहीं कर सकता.

यदि जंगल में आश्रय पाने वाले अधिकांश आदिवासी जंगल कटाने या लकड़ी निकलने का काम करने में लगे हैं. यदि कटाई कम होगी  तो जंगल की वनोपज उनका सहारा अधिक दिनों तक बनी रहेगी ,ये जंगल के वन्यजीवों के लिए भी लाभदायक होगा. मगर आज रोजगार अवसर जंगल काम हैं,वनवासी दीगर कार्यों में कुशल न होने के कारण वे कटाई जैसे  काम, कम दिहाड़ी पर भी करने  विवश हैं.जब तक ये कुटीर उद्योगों से नहीं जुड़ जाते अवैध जंगल कटाई करने वालों के प्रलोभन में आते रहेंगे .

1 comment:

  1. जंगल का उपयोग, दोहन बन जाने पर मुश्किल होती है. समस्‍या और साधन तो सदैव पड़ोसी होते हैं, समवाय भी.

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