जमीन,जंगल,जल,जमीर से जुड़े छतीसगढ़ के वन
में बसने वाले आदिवासियों के जीवन में परवर्तन का दौर जारी है. उनके रहन-सहन में बदलाव आ रहा
है, सस्ते आनाज की योजना के इनको लाभ मिल रहा है.
पहले नदी नालों का पानी का वे सेवन करते थे,फिर कुआँ खुदे और आज
हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं, कुआं बंद होते
जा रहे हैं.झोपडी,मिट्टी के मकान बाद ईट के मकान में तब्दील होने लगी हैं.
परम्परागत बेवर खेती [शिफ्टिंग कल्टीवेशन] की
परम्परा ख़त्म हो गई है, मगर नई पीढ़ी के आने के साथ परिवार तो बाधा पर सिंचाई के
रकबा कम बढ़ा, आज वनवासी बरसात में धान, मक्का की फसल के आलावा सब्जियों को भी
उगाना सीख गए हैं, साल के जंगल में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है और खून शीत गिरती है इस
वजह वो शीत से सिंचित भूमि में गेहूं के अलावा सरसों की फसल खूब लेते हैं. सरसों
के पीले फूलों से पंजाब का नजारा दिखने लगता है.
आखेट युग
से वो उबार गए है, वो जानते हैं कि, वन्यजीवों का शिकार अपराध होता है. मैंने देखा कभी वो शहरी को देख
कर अज्ञात भयवश छिप जाते थे. पर आज वैसा नहीं, जंगल बचाने में बालिका और लड़कियां
भी शामिल है, एक अक्तूबर को अचानकमार-से कान्हा के लिए कारीडोर बनाने के चल रहे
प्रयास के दौरान पदयात्रा में वन्यजीव बचाने में लगी मीतू गुप्ता, ने अपनी मितानी से
परिचय कराया. शहरियों से मिलाने अब कोई खौफ उनमें नहीं., उनके गीतों में जंगल,जल,जमीन का गुंथन होते जा
रहा है,जिसे वो सदियों से जुड़े हुए हैं.
जहाँ स्कूल दूर है छात्राएं साइकिल से जत्थे में
स्कूल जाती दिखती है. जंगल के गाँव में कवरेज न हो पर मोबाइल फोन पहुँच गया है.
उनको पता है कि किस पहाड़ी या कौन से पेड़ के पास से मोबाइल का कवरेज शुरू होता है.
नम्बर वो फ़ास्ट डायलिंग में रखे होते है, उन्हें ज्यादा नम्बर दूजों के चाहिए भी नहीं.
पर अब वो दुनिया से कटे नहीं रहना चाहते हैं.
कभी वो दिन थे की जिस गाँव् के पास से जंगल में सड़क बनती वहां से आदिवासी
अपना घर दूर कर लेते, सड़क से शहरी आते और वो इनसे दूर में ही भलाई मानते, इस सड़क
से जो आते वो बुरी नज़र वाले भी होते,उनकी बहू-बेटी असुरक्षित होती और उनके मुर्गे
भी ये शहरी का जाते. बदलाव के इस दौर में आज
वनविभाग के अधिकारी भी मानते है कि, वनवासियों से जंगल में काम लेने का पुराना
दबाव वो वाला तरीका बेकाम हो गया है. उनके
बदन गोदान कम हो गया है और परिधान में साड़ी-सूट सलवार,जींस सब शुमार हो गया है. पर
हाट-बाज़ार आज भी रौनक लिए हैं. जहाँ गाँव तक बिजली नहीं वहां ‘क्रेडा’ का काम और
बढ़ाना होगा..!
चिकित्सा सेवा, की जंगल के इलाके में बेहद कमी
है, मोबाईल का कवरेज नहीं होने के कारण संजीवनी 108 को फोन भी नही किया जा सकता.
आदिवासी अब मात्र वोट बैंक नहीं. वो मौन है पर भीतर मुखर है.सब जानकर भी अनजान, साधन
की कमी है.वे भोले हैं पर बेवकूफ नहीं.परम्पराओं और संस्कारों से वो परिपूर्ण
है, वो जाग चुके है सदियों से सोये थे उनको उनके सारे अधिकारों को देने में देर न हो ..!